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265/श्री दान-प्रदीप
कुण्ड के अन्दर जो सात्त्विक शिरोमणि पुरुष स्नान करके अखण्डित शरीर से युक्त होकर बाहर निकल जाय, वही तुम्हारी दोनों कन्याओं का पति होगा और वह चक्रवर्ती होगा।
यह सुनकर हमारे पिता ने प्रसन्न होकर प्रीतिदान देकर उसे संतुष्ट किया। फिर यहां आकर कुण्डादि बनाकर हमें यहां रखा है। हमारा वरण करने के लिए सैकड़ों श्रेष्ठ युवा पुरुष यहां आ चुके हैं। पर उनमें से कोई भी कल्पान्त काल के सूर्य की तरह इस कुण्ड को देखने में भी समर्थ नहीं हो पाये हैं। मात्र इस एक विद्याधर ने हमारा वरण करने की इच्छा से इस कुण्ड में झंपापात करने की तैयारी की, पर इसके मन में शंका उत्पन्न हो जाने से अधिष्ठायिका देवी ने इसे विकलांग बना दिया है। जिसकी एकमात्र श्रेष्ठ सत्त्वप्रधान ही वृत्ति होती है, उसे ही अद्भुत संपत्तियाँ प्राप्त होती हैं और जिसे कायरता के कारण कुछ भी शंका होती है, उसे पग-पग पर विपत्तियाँ प्राप्त होती हैं।"
यह सुनकर मन में आश्चर्यचकित होते हुए अत्यन्त धैर्ययुक्त, सात्त्विक जनों में शिरोमणि और हृदय में जरा भी कम्पित न होते हुए उस राजा ने कुण्ड में झंपापात किया। तुरन्त ही अग्नि का वह कुण्ड अमृतकुण्ड बन गया और राजा का शरीर वज्र के समान बन गया। सत्त्व के प्रभाव से क्या-क्या वस्तु प्राप्त नहीं होती?
फिर उपरोक्त वृत्तान्त अपने सेवकों के पास से ज्ञातकर विश्वावसु राजा भी शीघ्रता से परिवार के साथ वहां आया। उस राजा को पूर्व में विद्याधरियों का पति होने से पहचान लिया। अतः उसकी अति सात्त्विकता को जानकर राजा विश्वावसु अत्यन्त प्रसन्न हुआ। विद्या के बल से समस्त विवाह सामग्री तैयार करके वहीं उन दोनों कन्याओं का उस राजा के साथ पाणिग्रहण करवाया। फिर रत्नपाल राजा दोनों पत्नियों के साथ विमान पर आरूढ़ होकर विशाल विद्याधरों के समूह के साथ अपने नगर की तरफ चला । नगर में पहुँचकर उस राजा ने जुगारी को दस के बदले बीस करोड़ द्रव्य देकर द्यूत के व्यसन का त्याग करवाया और धर्ममार्ग में प्रवर्तित करके नगरश्रेष्ठी का पद प्रदान किया। फिर विश्वावसु विद्याधर राजा आदि का यथायोग्य आदर-सत्कार करके उन्हें विदा किया और एकछत्र राज्य को निष्कंटक भोगने लगा।
एक बार ग्रीष्मऋतु के समय गंगा नदी में क्रीड़ा करने की इच्छा से रत्नपाल राजा स्वयं नाव पर आरूढ़ हुआ। उसी समय अकस्मात् प्रचण्ड वायु के झपाटे से वह नाव क्रोध से व्याकुल स्त्री की तरह वेगपूर्वक चलने लगी। गलत मार्ग पर जाती हुई कुलटा स्त्री को जैसे उसके बन्धुजन नहीं रोक पाते, ठीक उसी तरह उन्मार्ग पर जाती हुई उस नाव को न तो नाविक ही रोक पाये और न पानी में तैरनेवाले खलासी ही रोक पाये।
"यह क्या?" इस प्रकार भ्रान्ति को प्राप्त राजा नदी के दोनों किनारों पर रहे हुए ग्राम,