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268/श्री दान-प्रदीप
रूपी फलयुक्त तप करते हैं, उन्हीं का तन सफल है-इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है।"
इस प्रकार वैराग्य की विशाल तरंगों से युक्त हुए राजा ने हर्षपूर्वक अपना राज्य रत्नपाल जामाता को प्रदान किया। श्रीगुरुदेव के समीप दीक्षा ग्रहण की और दुष्कर तप करके श्रेष्ठ गति रूपी मोक्ष को प्राप्त किया।
अब रत्नपाल राजा पुण्य से प्राप्त राज्य का पालन करते हुए कितने ही काल तक दोनों स्त्रियों के साथ वहां रहा। फिर राज्यकार्य मंत्रियों को सौंपकर रत्नपाल राजा ने अपने साम्राज्य को उसी तरह अलंकृत किया, जिस तरह स्वर्ग के राज्य को इन्द्र अलंकृत करता है। उसके क्रमशः शृंगारसुन्दरी, रत्नवती, पत्रवल्ली, मोहवल्ली, सौभाग्यमंजरी, देवसेना, गंधर्वसेना, कनकमुजरी और गुणमंजरी ये नौ रानियाँ हुईं। मानो पृथ्वी के नौ खण्डों से उत्तमोत्तम सौन्दर्य के परमाणुओं को लेकर उन्हें निपजाया हो-इस प्रकार से वे स्त्रियाँ शोभित होती थीं।
वह रत्नपाल तीस करोड़ ग्राम, बीस हजार नगर, दस हजार द्वीप और दस हजार दुर्गों का स्वामी था। तीस हजार खण्ड राजाओं, दस हजार मुकुटबद्ध राजाओं और बारह हजार बेलाकुलों (बन्दरगाहों) का वह नायक था। चालीस करोड़ सेना, चालीस लाख रथ, चालीस लाख घोड़ा और तीस लाख हाथियों का वह नेता था। वह पाँच हजार जलदुर्गों (जिसके चारों तरफ जल की खाई रूपी दुर्ग हो) का अधिपति था। दिन-रात हजारों विद्याधर उसकी सेवा में रहते थे। रत्नपाल राजा के वैभव का सम्यग् प्रकार से वर्णन करने में कौन समर्थ हो सकता था? वह प्रतिदिन दान और भोग में सौ करोड़ द्रव्य का व्यय करता था। उसके पुण्य की महिमा सीमातीत थी। उसका प्रमाण देने में कौन समर्थ था? उसे उस रस से प्रतिदिन उतना ही द्रव्य प्राप्त हो जाता था। प्रत्यक्ष अमृतरस के सामन उत्तम रस होने से उसके सम्पूर्ण राज्य में किसी को भी कोई बीमारी बाधित नहीं कर सकती थी। कल्पवृक्ष की तरह वह राजा सर्व मनोरथों को पूर्ण करने के कारण उसके राज्य के मनुष्यों को युगलियों की तरह दरिद्रता का उपद्रव कभी नहीं होता था। वह अपनी सन्तान के समान प्रजा का पालन करता था। अतः उसके राज्य में मरकी, शत्रु का भय, सात प्रकार की ईति-उपद्रव तथा अनीति आदि कुछ भी नहीं थे। इस प्रकार दिव्य सुखों को भोगते हुए और पृथ्वी पर शासन करते हुए उसे सुखपूर्वक दस लाख वर्ष व्यतीत हो गये। उस राजा के मेघस्थ, हेमरथ, शतरथादि नामों से युक्त सौ पुत्र हुए।
एक बार नगर के उद्यान में महासेन नामक केवली पधारे। उन्हें वंदन करने के लिए रत्नपाल राजा अंतःपुर और परिवार सहित गया। राजा ने गुरु को तीन प्रदक्षिणा करके विधिपूर्वक नमस्कार किया। गुरु ने भी सुख का पोषण करनेवाली धर्मलाभ रूपी आशीष के