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230/श्री दान-प्रदीप
को प्रदान किया। उस समय उसने पात्रदान के द्वारा सभी सुखों के कामण रूप और लक्ष्मी के भोग रूपी फल को प्रदान करनेवाला शुभ कर्म दृढ़ बन्धन से बांधा। उधर क्लिष्ट परिणामी पुण्यरहित उस पुण्य ने समग्र आपत्तियों के कारण रूपी अशुभ कर्म को बांधा।
हे राजन! वे दोनों अनुक्रम से मरण को प्राप्त करके यहां भद्र और अतिभद्र नाम से दो भाई बने हैं। पात्रदान के महापुण्य रूपी मेघ के आगमन से इस भद्र की संपत्ति रूपी लता वृद्धि को प्राप्त हो रही है। पात्र में असार वस्तु का दान दिया हो, तो भी वह महान लाभ का कारण बनता है, क्योंकि सीप में पड़ा हुआ मेघ का जल मुक्ताफल बनने के लिए ही होता है। पात्रदान के प्रभाव की महिमा कहने में कौन शक्तिमान है? कल्पवृक्ष और चिन्तामणि जैसे दिव्य पदार्थ भी पात्रदान करनेवाले के दास रूप होते हैं। प्राणियों को जो अभंग सौभाग्य प्राप्त होता है, जो विशाल अतुल्य साम्राज्य मिलता है, जो अविनश्वर माहात्म्य प्राप्त होता है, जो अत्यन्त विस्तारयुक्त कीर्ति प्राप्त होती है, जो असंख्य सुखों की प्राप्ति के साथ मनोहर दीर्घायुष्य प्राप्त होता है और जो आपत्तियों के लेशमात्र से भी रहित संपत्तियाँ प्राप्त होती हैं, वह सभी सुपात्र को दिये गये दान की महिमा के कारण ही उल्लास को प्राप्त होती हैं। जो दुर्बुद्धियुक्त मनुष्य अन्यों को दान देते हुए रोकता है, वह अतिभद्र की तरह निर्धन बनता है। जिन्होंने पूर्वभव में दान में विघ्न पैदा किया है, वे इस भव में घर-घर में मात्र अनाज के लिए "मुझे दो-मुझे दो"-इस प्रकार बोलते हुए भीख मांगते हैं। जो यथाशक्ति दान नहीं देते, वे निन्दनीय होते हैं और जो दान देनेवाले का निषेध करते हैं, वे तो अत्यन्त निन्दा करने लायक होते हैं। दान की विराधना करनेवाले प्राणियों को भव-भव में दारिद्र्य, दुर्भाग्य, रोग, कलंक, दुर्गति, अल्पायुष्य, दासता और शत्रु से पराभव आदि दुःख प्राप्त होते हैं। अतः हे भव्य प्राणियों! अपनी संपत्ति के अनुसार सुपात्र को दान देना चाहिए और दान देनेवाले को उत्साहित भी करना चाहिए।" ___ इस प्रकार बुद्धिमानों को आनन्द प्रदान करनेवाली गुरु की वाणी का श्रवण करके जितशत्रु राजादि पात्रदान में अधिक से अधिक आदरयुक्त बने। उधर वे दोनों भाई अपने पूर्व के सुकृत्य और दुष्कृत्य की क्रमशः अनुमोदना और निन्दा करने लगे। उन्होंने मन में प्रतिबोध प्राप्त किया और विशेष प्रकार के शुद्ध अध्यवसाय से तत्काल विस्मययुक्त पूर्वजन्म की स्मृति को प्राप्त किया अर्थात् जातिस्मरण ज्ञान प्राप्त किया। जिस प्रकार श्रीगुरुदेव ने उनका पूर्वजन्म बताया था, वैसा ही देखकर उन्हें अत्यन्त आनन्द हुआ। फिर उत्कट भक्तिपूर्वक श्रीगुरुदेव को प्रणाम करके उन्होंने कहा-"हे भगवान! आपने हमारा पूर्वभव यथार्थ ही कहा है। जातिस्मरण ज्ञान के द्वारा हमने अभी साक्षात् वैसा ही देखा है। अहो! आपका ज्ञान रूपी दर्पण अदभुत है! जिसमें अत्यन्त दूर रहे हुए पदार्थ भी स्पष्ट रूप से प्रतिभासित होते हैं। कदाचित् पृथ्वी, आकाश