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241/श्री दान-प्रदीप
पुरुष उत्तम भोजन का निषेध करता है। सूर्य की कान्ति की तरह संचार करती हुई वह स्वयंवरा कन्या जिन-जिन राजाओं का उल्लंघन करती हुई आगे जा रही थी, वे–वे राजा 'छाया-सहित होते हुए भी अत्यन्त छाया-रहित बन रहे थे यह आश्चर्यजनक बात थी। उसके बाद अनुक्रम से रत्नपाल कुमार के पास आते ही उसे देखकर वह स्थिर हो गयी। मंजरीयुक्त आम्रवृक्ष को छोड़कर भ्रमरी और कहां जा सकती है? यह देखकर प्रतिहारी ने उसके मन के भाव जानकर कहा-“हे देवी! यह रत्नपाल नामक कुमार है। इसका अद्भुत चरित्र सुनिए-स्वर्ग की समृद्धि को चुरानेवाला श्री पाटलिपुर नामक नगर है। उस नगर में विनयपाल नामक राजा पृथ्वी का पालन करते हैं। उस राजा ने शत्रुओं के हृदय में चिरकाल से रही हुई शूरवीरता और अहंकृति को निकालकर उसके स्थान पर नपुंसकता और भय का निवास करवाया है। उन्हीं का पुत्र यह कुमार कार्तिकस्वामी के समान महापराक्रमी है। इसका रूप और दान काम से भी ज्यादा शोभित है। सुन्दरता और शूरवीरता के पात्र रूप इनको देखने मात्र से ही स्त्रियों के वस्त्र और शत्रुओं के शस्त्र अपने-अपने स्थानों से च्युत हो जाते हैं। पृथ्वी के भार का वहन करने में धुरी के समान इनको जानकर कूर्म (कछुए) और शेषनागादि अब सुखपूर्वक सोने के लिए तैयार हो गये हैं।
हे देवी! यह कुमार देवकुमार के समान है और भाग्य अत्यन्त जागृत हो अर्थात् उदयप्राप्त हो, तभी यह पति के रूप में प्राप्त हो सकता है।
हे देवी! यह कुमार अपने दाहिने हाथ से पृथ्वी का भार उठाने की तैयारी में है और बायें हाथ में सुख के लिए प्रतिमान बनने लायक आप हैं। आकृति, प्रकृति, यश और वय के द्वारा यह कुमार ही आपको सर्व प्रकार से योग्य प्रतीत होगा।
हे देवी! अद्भुत सौभाग्ययुक्त आपको रचकर विधाता ने अगर आपके ही तुल्य इस कुमार को न रचा होता, तो विधाता की क्या निपुणता कही जाती? अतः जैसे विष्णु की प्रिया लक्ष्मी है, इन्द्र की प्रिया इन्द्राणी है और महादेव की प्रिया पार्वती है, वैसे ही इस कुमार की प्राणवल्लभा आप बनो।"
इस प्रकार उस प्रतीहारी के द्वारा दुगुने उत्साह को प्राप्त कन्या ने उत्कण्ठापूर्वक उस कुमार के गले में वरमाला डाल दी। उस समय सभी कहने लगे-"अहो! इस कुमारी ने श्रेष्ठ 1. सूर्य की कान्ति जिसका उल्लंघन करती है, वह उल्लंघन करने के पहले छाया रहित होता है और बाद में छाया सहित हो जाता है। पर इसके विपरीत होने से आश्चर्य हुआ। इससे विरोध पैदा होता है। अतः उसका परिहार करने के लिए यहां छाया शब्द का अर्थ शोभा करना चाहिए। 2. रूप कामदेव से ज्यादा और दान इच्छा से ज्यादा अर्थात् याचक की याचना से भी ज्यादा है। 3. तराजू के एक पलड़े में घी आदि का भार हो और दूसरे पलड़े में तोलने के लिए जो बाट रखे जाते हैं, उसे प्रतिमान
कहते हैं।