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255 / श्री दान- प्रदीप
औषधि के द्वारा कन्या के विष को उतारकर उसे जीवित कर दिया । सत्पुरुषों की कला पर के लिए ही होती है। उसके बाद उस रत्नपाल के रूप, सौभाग्य और कलादि गुणों से रंजित होते हुए राजा ने अविलम्ब उसके साथ अपनी पुत्री का विवाह कर दिया । फिर उसे अपना आधा राज्य भी दे दिया । सत्पुरुष अपनी प्रतिज्ञा पालने में लोभ को आड़े नहीं आने देते।
उसी समय उस बलवाहन राजा का दूत अनेक देशों में जाकर वापस राजसभा में लौटा। उसने रत्नपाल राजा को पहचान लिया । अतः उसने अपने राजा से कहा- "हे देव ! इनके जैसे जामाता तो पुण्य से ही प्राप्त होते हैं । ये तो विनयपाल राजा के पुत्र रत्नपाल हैं। ये महापराक्रमी हैं और सर्व राजाओं में अलंकार रूप हैं । "
यह सुनकर राजा अत्यन्त हर्षित होते हुए विचार करने लगा - "अहो ! अनजाने में ही पुत्री को मैंने उत्तम स्थान पर दिया है।"
फिर राजा ने पुनः जामाता का अत्यन्त स्वागत-सत्कार किया । आदरपूर्वक अलग से एक महल देकर उसमें जामाता को रखा ।
एकबार किसी चारण- भाट के द्वारा गायी हुई शृंगारसुन्दरी की शीलसंपत्ति का श्रवण करके राजा रत्नपाल अत्यन्त प्रसन्न हुआ और जयमन्त्री पर अत्यन्त क्रोधित हुआ । अतः उसने अपने ससुर राजा को शुरु से अन्त तक का अपना सारा वृत्तान्त सुनाया । तब उन्होंने उसे प्रयाण करने की आज्ञा प्रदान की । चतुरंगिणी सेना से घिरा हुआ राजा रत्नपाल अपनी प्रिया के साथ उत्सुकतापूर्वक अपने नगर की तरफ चला । मार्ग में किसी विशाल अरण्य में उसने सेना का पड़ाव डाला। रात्रि में कहीं किसी दूर के स्थान से आते हुए कर्ण में अमृत के समान मधुर स्वर लहरी से युक्त गीतों की ध्वनि को सुना । सुनते ही वह तुरन्त खड़ा हो गया और विचार करने लगा कि 'यह स्वर कहां से आ रहा है? कौन गा रहा है?'
ऐसा विचार करके अकेला ही हाथ में खङ्ग लेकर कौतुकपूर्ण होकर आवाज का पीछा करते हुए उस स्थान पर पहुँच गया, जहां से स्वर आ रहा था। वहां मन और दृष्टि को प्रसन्न बनानेवाले अरिहन्तों के प्रासाद को देखकर जैसे ही उसमें प्रवेश करने लगा, वैसे ही बिजली के समान प्रकाशवाली कोई विद्याधरी सखियों के साथ विमान में बैठकर आकाश में उड़ गयी ।
'यह कौन होगी?'–ऐसा मन में विचार करके विस्मित होते हुए उसने प्रासाद में प्रवेश किया। उसमें रही हुई आदिनाथ प्रभु की स्वर्णमय प्रतिमा को वंदन करके उस प्रतिमा को