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262/श्री दान-प्रदीप
महाबलवान विद्याधर राजा अत्यन्त कुपित हुए कि हम जैसे विद्याधरों के विद्यमान रहते हुए पृथ्वी पर चलनेवाले मनुष्य का वरण कैसे किया जा सकता है? अगर इस मुग्धा ने अपनी अज्ञानता के कारण इस मनुष्य का वरण कर भी लिया है, तो भी अगर यह भूमिचर इस कन्या के साथ पाणिग्रहण करेगा, तो हम यह सहन नहीं करेंगे।" ___ इस प्रकार बोलते हुए वे सभी एक जगह इकट्ठे हो गये और रत्नपाल राजा के साथ युद्ध करने के लिए सैन्य इकट्ठा कर लिया। यह देखकर रत्नपाल राजा ने अपने मस्तक पर उस तुम्बड़े के रस का तिलक किया। अपने आयुध को ऊपर उठाकर युद्ध के लिए सन्नद्ध हो गया। उसकी शूरवीरता के आगे वे सभी विद्याधर राजा घबराकर कौओं की तरह चारों दिशाओं में भाग गये। फिर हेमांगद राजा ने विशाल उत्सवपूर्वक अपनी कन्या का विवाह रत्नपाल राजा के साथ किया। हस्तमिलाप के समय हेमांगद राजा ने रत्न्पाल राजा को हर्षपूर्वक रोहिणी आदि महाविद्याएँ प्रदान की। हेमांगद राजा की सहायता से रत्नपाल राजा ने सारी विद्याएँ सिद्ध कर लीं। धर्मिष्ठ पुरुष के लिए क्या असाध्य है? उसके बाद दोनों श्रेणियों में रहे हुए विद्याधर राजा विशाल उपहारों को हाथों में लेकर चक्रवर्ती के समान रत्नपाल राजा को भेंट देने लगे। उसके बाद नवविवाहिता स्त्रियों के साथ वह रत्नपाल विमान पर आरूढ़ हुआ और विद्याधरों के सैन्य से घिरा हुआ वह अपनी नगरी में गया।
तीन खण्ड के साम्राज्य को अखण्ड रीति से पालते हुए और दातारों में शिरोमणि रत्नपाल राजा इस प्रकार दान देता था। सत्यवाणी के व्रत में स्थित वह राजा हमेशा जिनप्रासाद, जिनबिम्ब आदि सात क्षेत्रों में तीस कोटि स्वर्ण का व्यय करता था। अरिहन्तादि के गुणसमूह की स्तुति करनेवाले याचकों को वह हमेशा दो करोड़ स्वर्ण का दान करके प्रसन्न करता था। आपत्ति में पड़े हुए दीनादि का उद्धार करने में दयालू वह राजा हमेशा दस करोड़ स्वर्ण का व्यय करता था। अहो! उसकी दातारी कितनी अद्भुत थी। कोई भी पुरुष अपूर्व और अद्भुत काव्य या श्लोक अथवा कथा सुनाता, तो प्रत्येक को दस-दस कोटि स्वर्ण का दान देता था। हाथी, घोड़ा, पदाति, सामन्त और अंतःपुर आदि के खर्च में हमेशा अड़तीस कोटि स्वर्ण लगाता था। इस प्रकार उस रस के प्रभाव से प्रतिदिन सौ कोटि स्वर्ण का उत्पादन करके तथा उतना ही खर्च करके वह राजा चक्रवर्ती के सुखों का भी उल्लंघन करता था।
उस समय में उसी नगर में एक जुआरी रहता था। उसकी बुद्धि को कोई पराभूत नहीं कर सकता था। वह जुगार के अखाड़े में हमेशा लाख द्रव्य की हार-जीत करता था। अंतिम समय में सायंकाल होने पर उसके पास एक रुपये का तीसरा भाग मात्र ही शेष रहता था। परिमित गेहूँ का आटा बाजार से खरीदकर कुम्भार के निम्भाड़े के पास जाकर उस आटे की