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252 / श्री दान- प्रदीप
तब विद्याधर राजा ने उन सब के सामने उस सती के शील का वैभव और अपनी दुष्ट चेष्टा का कथन स्पष्ट रूप से किया और कहा - " अहो ! इसके शील की शक्ति तीन लोकों का उल्लंघन करती है ।"
यह सुनकर उसके चारित्र से चमत्कृत होते हुए कौन ऐसा न होगा कि जिसने उसकी स्तुति न की होगी?
उसके बाद वह विद्याधर भी उसे प्रणाम करके अपने स्थान पर लौट गया और उस सती के आशीर्वाद के प्रभाव से अनुक्रम से अपनी ऋद्धि-वैभव को प्राप्त किया ।
इसी कारण से मैं कहता हूं कि हे स्वामी! दृढ़ व्रतवाली ये सतियाँ पूजा - सत्कार के ही लायक हैं। उनकी थोड़ी भी हीलना या कदर्थना करना उपयुक्त नहीं है ।"
यह सुनकर जयमन्त्री भयभीत होकर शान्त हुआ और उस सती से क्षमायाचना करके उसे छोड़ दिया और कहा - "तुम तुम्हारा शील पालो और सुख से रहो ।"
कसाई की तरह जय से मुक्त होकर वह शृंगारसुन्दरी हर्षित हुई प्रशस्त मन से युक्त होती हुई विचार करने लगी- "अगर मेरे स्वामी जीवित हों, तब तो मैं स्वजनों के पास रहकर धर्मकार्यों में तत्पर होते हुए समय का निर्गमन करूं और अगर मेरे स्वामी जीवित न हों, तो धर्मविधि से मरण को अंगीकार करूं, क्योंकि स्वामी के बिना अगर जीवित रही, तो शील पर फिर संकट आ सकता है।"
ऐसा विचार करके उस सती ने श्रेष्ठ निमित्तज्ञों को बुलाकर पूछा - "मेरे पति कुशल हैं। या नहीं? वे मुझे कब मिलेंगे?”
उन्होंने अच्छी तरह देखकर और विचार करके कहा - " हे माता! आप मन में शान्ति धारण करें व निरन्तर धर्म की ही आराधना करें। धर्म के प्रभाव से ही विशाल समृद्धि को प्राप्त करके आपके पति ठीक बारह वर्ष के बाद आपसे यहीं आकर मिलेंगे ।"
यह सुनकर शृंगारसुन्दरी अत्यन्त हर्ष को प्राप्त हुई और निमित्तज्ञ को इच्छानुसार दान देकर सन्तुष्ट किया। उसके बाद पति के लौट आने तक उसने आयम्बिल व्रत धारण किया। बीच-बीच में वह छट्ट, अट्ठम, पाँच उपवास, पन्द्रह उपवास और मास उपवासादि दुष्कर तप भी करने लगी। वह पतिव्रता दर्पण में कभी भी अपना मुख नहीं देखती थी। शरीर पर अंगराग - विलेपन नहीं करती थी । शरीर की कान्ति के लिए स्नान भी नहीं करती थी । चमकते हुए वस्त्र भी नहीं पहनती थी। आँखों में अंजन भी नहीं आँजती थी। पलंगादि पर भी नहीं सोती थी । सदैव त्रिकाल जिनपूजा करती थी । सामायिक, पौषधादि क्रियाएँ भी करती थी । योगिनी की तरह संगरहित होकर समय का निर्गमन करती थी ।