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237/ श्री दान- प्रदीप
भी सचित्त वस्तु के त्याग करने का श्रुत में सुना जाता है । अतः उनके लिए भी परिशेष रूप से इतने ही प्रकार के पानी को पीने की आज्ञा सिद्ध होती है । अगर कदाचित् गृहस्थ इस प्रकार के जल को नहीं पीता है, तो यति को भी वह जल कल्पनीय नहीं है, क्योंकि गृहस्थी के द्वारा तैयार वैसा जल यतियों के लिए आरम्भ रूप कहलाता है । अतः जिनेश्वर की आज्ञा माननेवाले व प्रासुक जल को पीनेवाले गृहस्थी के द्वारा इतने प्रकार के जल में से कोई भी प्रकार का जल ग्रहण करना अर्थात् पीना चाहिए । बुद्धिमान श्रावक को वैसा ही जल भक्तिपूर्वक शुद्ध भाव से साधुओं को भी बहराना चाहिए, क्योंकि जिनेश्वरों की आज्ञा के अनुसार दिया गया दान ही मोक्ष लक्ष्मी का प्रदाता बनता है। जो मनुष्य हर्षपूर्वक चित्त में समता को धारण करनेवाले मुनियों को निर्दोष जल का दान करता है, उसने समग्र दुःखों को जलांजलि दे दी है, ऐसा मानना चाहिए । जो मुनियों को स्वच्छ निर्मल भाव से प्रासुक जल देता है, वह रत्नपाल राजा की तरह दिव्य संपत्ति को प्राप्त करता है । उसकी कथा इस प्रकार है :
स्वर्ण और मणियों से सुशोभित प्रासादों की कान्ति के द्वारा सर्व दिशाओं को विचित्र वर्णयुक्त करनेवाला पाटलिपुत्र नामक नगर था । उस नगर में विनयपाल नामक राजा राज्य करता था। वह राजा सर्व गुणों की लक्ष्मी का विश्राम स्थान था । उसके राज्य रूपी लता की क्यारी के समान श्री रत्नपाल नामक पुत्र था । वह विनय के द्वारा उल्लसित और सभी प्रकार के गुणोदय को प्राप्त था । उसके अत्यन्त अद्भुत सौभाग्य के द्वारा मोह को प्राप्त सारी कलाएँ मानो एक ही समय में एक साथ उसमें निवास करती थी । उसके हृदय को कलाओं से, मुख को सरस्वती से और दोनों हाथों को लक्ष्मी से रुंधा हुआ देखकर नवयौवन को धारण करनेवाली लक्ष्मी मानो उत्कण्ठित होकर सर्वांग से उसका आलिंगन करती थी । जैसे कृपण स्त्री के हाथ से भोजन करनेवाले तृप्ति को प्राप्त नहीं होते, वैसे ही इस कुमार के श्रेष्ठ सौंदर्य को देखनेवालों के नेत्रों को तृप्ति नहीं होती थी ।
एक बार विशाल सभा में बैठे हुए राजा को प्रतिहार ने आकर प्रणाम करके हाथ जोड़कर विज्ञप्ति की - " हंसपुर के स्वामी वीरसेन राजा ने अपने प्रधान पुरुषों को भेजा है। वे द्वार पर खड़े हैं। आपके दर्शन की उत्सुकता को धारण करते हैं । "
यह सुनकर राजा ने कहा- "उन्हें शीघ्र यहां लाओ ।"
प्रतिहार ने उन्हें सभा में प्रवेश करवाया। उन्होंने राजा के सामने भेंट आदि रखकर उन्हें भक्तिपूर्वक प्रणाम किया। उसके बाद उन्हें सुखासन पर बिठाया गया। फिर राजा ने उनसे पूछा - "वीरसेन राजा कुशल तो है? उनका लक्ष्मीमान देश और प्रजा भी कुशल तो है?"