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236/श्री दान-प्रदीप
लगेंगे। शास्त्र में सुना जाता है कि केवलज्ञान से शोभित श्री महावीरस्वामी उदायी राजा को प्रतिबोधित करने के लिए जा रहे थे। उस समय मार्ग में सूर्य के ताप से द्रहादि का जल उन्होंने अचित्त हुआ देखा। उनके साथ के साधु तृषा से अत्यन्त प्राणान्त कष्ट से पीड़ित थे। फिर भी अनवस्था के दोष के भय से भगवान ने जल पीने की अनुज्ञा नहीं दी।
और भी, प्रथम वृष्टि होने पर तालाब आदि का जल अलग वर्णादि का हो जाता है। तो फिर वह भी मुनि के ग्रहण करने लायक बन जायगा।
अब जो श्रुत में कथित कांजी आदि के प्रासुक जल की भी निन्दा करते हैं, उन्हें निश्चित रूप से मूढ़ बुद्धियुक्त जानना चाहिए। उन्हें साधु ही नहीं कहा जा सकता। इस विषय में उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है :आयामगं चेव जवोदगं च सीअं सोवीरं च जवोदणं(ग) च। नो हीलए पिंडं नीरसं तु पंतकुलाइं परिव्वए जे स भिक्खू ।। ___ भावार्थः-आयाम अर्थात् धान्य का ओसावण, यव का धोवन-जो शीत होता है, सौवीर अर्थात् कांजी का जल और यव का धोवन-जो शीत होता है, वह और नीरस अर्थात् रसरहित या उस प्रकार के स्वाद से रहित आहार-गोचरी के निमित्त अन्त-प्रान्त कुलों में फिरते हुए मिले, तो उसकी उपेक्षा न करे, उसी को सच्चा साधु जानना चाहिए।
बुद्धिमान व्यक्ति को ऐसा भी नहीं कहना चाहिए कि जरत्नीर आगम में नहीं कहा गया है, क्योंकि ऊपर कहे हुए नौ प्रकार के जल की तरह जरत्नीर का पाठ भी आगम में स्पष्ट रूप से कथित है। इस विषय में श्रीनिशीथ भाष्य में कहा है:
कंजिअआयामासइ संसद्बुसिणोदगस्स वा असई। फासुअजलं तसजढं तस्सासइ तसेहिं जं रहि।।
भावार्थ:-कंजिक जल और आयाम-धान्य का ओसावण, इसी प्रकार संसृष्ट और उष्ण (उकाला हुआ) प्रासुक-निर्जीव जल नहीं मिलने पर त्रसमुक्त अर्थात् पोरा आदि जीवों से रहित (अन्य) प्रासुक जल (भी लेना कल्पता है)।
इत्यादि निशीथ चूर्णि में भी वर्णित है। वह जरत् जल ही समझना चाहिए। इसी प्रकार श्री दशवैकालिक सूत्र में भी तहेवुच्चावयं पाणं 'अदुवा वारधोयणं इत्यादि भी वर्णित
जा
।
यह सभी प्रकार का जल जिनेश्वरों ने यति के लिए ही कहा है-ऐसा नहीं मानना चाहिए, क्योंकि श्रावक को आश्रित करके अन्य किसी भी प्रकार के जल का वर्णन शास्त्रों में नहीं है। अतः श्रावक को भी ऊपर कहे प्रकार के जल को ही पीना चाहिए। गृहस्थ के द्वारा