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234 / श्री दान- प्रदीप
भव को प्राप्त करके चारित्र ग्रहण करके अल्पकाल में ही वे दोनों मोक्ष को प्राप्त करेंगे।
इस प्रकार सुपात्र को अन्नदान देने के अतुल महिमा का श्रवण करके हे पुण्यबुद्धि से युक्त भव्यों! उस अन्नदान में एक चित्त होकर प्रयत्न करना चाहिए, जिससे प्रयत्न के बिना ही तुम्हें सुख-सम्पत्ति प्राप्त हो सके ।
।। इति सप्तम प्रकाश । ।
७ अष्टम प्रकाश
श्रीवर्द्धमानस्वामी सुख की वृद्धि करनेवाले बनें । उन्होंने पूर्व में नयसार के भव में सुपात्र को विशुद्ध अन्न का दान देकर अरिहन्त पद रूपी कल्पवृक्ष का बीज बोया था। अब पुण्य की खान रूपी सुपात्र-पानदान अर्थात् सुपात्र को पानी का दान करने रूप धर्मार्थदान का पाँचवाँ प्रकार कहा जाता है। सर्व प्रकार के आरम्भ से निवृत्त हुए मुनियों के लिए प्रासुक (अचित्त / निर्जीव) जल कल्पनीय है, क्योंकि उन्होंने जीवन पर्यन्त के लिए छःकाय के जीवों की रक्षा अंगीकार की है। जिसकी एक बूंद में असंख्य जीव रहे हुए हैं, ऐसे जल का आरम्भ संयमी के लिए कैसे उचित हो सकता है? श्रीमहावीरस्वामी ने अपने बड़े भाई के आग्रह से गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी दो वर्ष तक कच्चे पानी का आरम्भ नहीं किया था । अप्काय का आरम्भ करने से छहों काय के जीवों की विराधना होती है, क्योंकि जल में अन्य पाँचों काय सम्भव है। इस विषय में श्रीओघनिर्युक्ति में कहा है:
जत्थ जलं तत्थ वणं, जत्थ वणं तत्थ निच्छिओ अग्गी ।
तेऊ वाउ सहगया तसा य पच्चक्खया चेव ।।
भावार्थ:-"जहां जल होता है, वहां वनस्पति होती है, जहां वनस्पति होती है, वहां अवश्य अग्नि होती है। तेज के साथ वायु अवश्य रही हुई होती है तथा सकाय तो प्रत्यक्ष ही जल में देखने में आती है। (पृथ्वी के बिना जल रह नहीं सकता, अतः पृथ्वीकाय का समावेश भी हो जाता है । ) "
जो व्रत धारण करने के बाद भी उस जल का आरम्भ करते हैं, वे संयमी नहीं कहला सकते, बल्कि उन्हें तो वेष धारण करनेवाले पाखण्डी ही समझना चाहिए । इस विषय में उपदेशमाला में कहा है :