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231 / श्री दान- प्रदीप
और समुद्र सीमायुक्त बन जाय, पर विश्व के पदार्थों को देखनेवाले आपके ज्ञान की कोई सीमा नहीं है।"
इस प्रकार गुरुदेव की स्तुति करके उन दोनों भाई ने उनके पास हर्षपूर्वक बारह व्रतों से मनोहर श्रावक धर्म को अंगीकार किया । राजादि अन्य लोगों ने भी उद्यम सहित समकित आदि धर्म अंगीकार किया। कौनसा सचेतन प्राणी सागर में जाकर रत्न ग्रहण नहीं करेगा?
उसके बाद सूरीश्वर को प्रणाम करके परिवार सहित राजा, पुरजन और वे दोनों भाई अपने-अपने घर गये। धर्मरंग के संबंध से उन दोनों भाइयों में परस्पर प्रीति बढ़ने लगी । क्या चन्द्र के संबंध से समुद्र का तट वृद्धि को प्राप्त नहीं होता? वे हमेशा सुपात्रादि को दान देने में विशेष प्रयत्नशील बने। जिसका अच्छा फल निश्चित हो, वैसे कार्यों को करने में बुद्धिमान पुरुष आलस्य नहीं करते । अतिभद्र की संपत्ति भी धर्म के योग से वृद्धि को प्राप्त होने लगी । वसन्त ऋतु के धरती पर उतरते ही क्या लताएँ विकसित नहीं होती ? इस प्रकार उन दोनों भाइयों ने चिरकाल तक अनेक प्रकार से शुद्ध धर्म की आराधना की और स्वर्ग में गये। वहां से च्यवकर मनुष्य व देवसम्पदा का भोग करके अनुक्रम से कुछ ही भव करके वे दोनों मोक्ष जायेगे ।
अतः हे भव्यों! अल्प भी पात्रदान के निःसीम वैभव को सम्यग् प्रकार से जानकर उस पात्रदान में ही निरन्तर यत्न करना चाहिए ।"
इस प्रकार चारण मुनि की धर्म रूपी वाणी के भोजन का आस्वाद करके उस कनकरथ नामक विद्याधर राजा ने अत्यन्त हर्षपूर्वक मुनि से प्रश्न पूछा - "हे पूज्य! मैंने तथा इस मदनमंजरी ने पूर्वभव में ऐसा कौनसा सुकृत्य किया था, जिससे भोगसामग्री के बिना भी सर्वसुख हमें प्राप्त हुए?"
तब चारण मुनि ने विद्याधर राजा से कहा - "सत्पात्र - दान के प्रभाव से ही तुम दोनों को भी अपार समृद्धि प्राप्त हुई है । वह इस प्रकार है :
इसी भरत क्षेत्र में मगध देश की पृथ्वी की शोभा रूप और सुन्दरता का एकमात्र स्थान शालिग्राम नामक नगर था । उसमें धनदेव नामक एक कपटरहित कुटुम्बी रहता था। उसके पास अल्प ऋद्धि होने पर भी वह सदैव दानधर्म में उत्सुक रहता था । उसके यशोमति नामक प्रिया थी। वह स्वर्णभार रूपी अलंकार के बिना भी प्रशस्त गुणों रूपी आभूषणों के द्वारा अपने अंगों को शोभित बनाती थी । संपत्ति के अभाव में भी दृढ़ प्रेम के कारण वे अपना समय सुखपूर्वक निर्गमन करते थे, क्योंकि दम्पति का परस्पर प्रेम ही सुख का हेतु है ।
एक बार अनेक सद्गुण रूपी रत्नों की खान, अतिचार रहित चारित्र का पालन