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223/श्री दान-प्रदीप
और काम के आधीन अनेक दिवस व्यतीत हुए।
एक बार वन के दावानल की ज्वाला के समान सर्व सुखों का नाश करनेवाली पुत्र के अभाव रूपी चिन्ता उनके मन को संताप देने लगी। पूत्र पिता के दारिद्र्य का नाश नहीं कर सकता, व्याधि का नाश भी नहीं कर सकता, इस भव में एकान्त रूप से हितकारक भी नहीं होता, एकान्त रूप से सद्गुणी भी नहीं होता, परलोक की गति में सहायक भी नहीं होता, क्योंकि प्राणियों की गति परलोक में अपने-अपने कर्मों के कारण भिन्न भिन्न ही होती है, पर फिर भी प्राणियों को पुत्र न होने की चिन्ता पीड़ित बनाती है। यह मोह राजा का ही विलास है।
पुरुषों को पुण्य के वश से ही सर्व इच्छित की सिद्धि होती है। क्या बेल की उत्पत्ति जड़ के आधीन नहीं? इस प्रकार उन दोनों ने विचार करके पुण्यकार्य में अधिकाधिक प्रवृति शुरु कर दी, क्योंकि विवेकी पुरुष अच्छे कार्यों में ही प्रवृत होते हैं। फिर सम्यग्दृष्टि आत्माओं के नेत्रों को शीतलता उत्पन्न करनेवाले अनेक जिनचैत्य करवाये। उनमें श्रेष्ठ और उत्तम प्रतिमाएँ भरवाकर स्थापना करवायी। जिनचैत्यों में पूजा का उत्सव किया। भक्तिपूर्वक अतुल साधर्मिक वात्सल्य किया। जन्म को पवित्र बनानेवाली अनेक तीर्थयात्राएँ कीं। अपरिमित पात्रदान किया। शुभ का उदय करनेवाली दया पाली। जिनागम की पुस्तकें लिखवायीं। अपने द्रव्य के द्वारा बन्दियों को छुड़वाया। दुस्तप तपस्या की। अन्य भी अनेक धर्मकार्य उन्होंने प्रीतिपूर्वक किया। फिर चित्त रूपी उदयाचल पर्वत पर पुण्य रूपी सूर्य का उदय होने से रात्रि के अन्धकार समूह की तरह उनके विघ्न-समूह का नाश हुआ। अतः पुण्य की सुगन्ध से शोभित कमला ने, पृथ्वी जैसे श्रेष्ठ रत्नों के निधान को धारण करती है, वैसे ही अद्भुत गर्भ को धारण किया। पाप-समूह का नाश करनेवाले उसके प्रशस्त दानादि दोहद को श्रेष्ठी ने उसकी इच्छानुसार उत्साहपूर्वक पूर्ण करवाया। अनुक्रम से समय पूर्ण होने पर जैसे रोहणाचल पर्वत की पृथ्वी निर्मल मणियुगल को उत्पन्न करती है, वैसे ही उसने एक साथ दो श्रेष्ठ पुत्र प्रसव किये। धर्म अचिन्तनीय फल प्रदान करता है-यह बात सत्य ही है, क्योंकि उन्होंने एक पुत्र की इच्छा की थी और धर्म ने उन्हें दो-दो पुत्र दे दिये। पुत्ररहित उन दोनों को दो पुत्र उत्पन्न होने से इतनी प्रसन्नता हुई कि या तो उसे सर्वज्ञ ही जान सकते थे या फिर उनका मन जानता था। फिर विविध प्रकार के महोत्सव करके हर्षपूर्वक माता-पिता ने उन दोनों का नाम भद्र और अतिभद्र रखा। धायमाता के दूध के पूर रूपी जलधारा के सिंचन के द्वारा अनुक्रम से वे दोनों आम्रवृक्ष के अंकुरों की तरह वृद्धि को प्राप्त हुए। बाल्यावस्था में ही पिता ने उन दोनों को समस्त कलाएँ सिखा दी, क्योंकि चन्द्र उगती हुई कला से युक्त ही पूज्य होता है, क्षीण होती हुई कलाओं के द्वारा नहीं।