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213 / श्री दान- प्रदीप
प्रभावयुक्त आपकी ही कृपा सभी को सुख-सम्पत्ति देने में समर्थ है। अन्य कोई भी यह सुख देने में समर्थ नहीं है ।"
उस समय वे सभी सभासद खुशामदी भरे वचनों की चतुराई का नाटक कर रहे थे। उस समय मदनमंजरी ने अपनी नासिका टेढ़ी करके मुख मरोड़ा । यह देखकर राजा ने क्रोधित होते हुए उससे पूछा - "दूध से भीगे हुए मुखवाली हे मुग्धे ! तुमने मुख क्यों टेढ़ा किया?"
राजा के इस प्रकार पूछने पर विशिष्ट बुद्धियुक्त उसने स्पष्ट रीति से कहा, क्योंकि बुद्धिमान मनुष्य किसी भी स्थान पर माया - कपटयुक्त वचन बोलना नहीं सीखते । अतः उसने कहा- "हे देव! इन मायावियों के मायामय वचन मानो विवेक का हनन करने के लिए शस्त्र के समान हो - इस प्रकार से मेरे हृदय को चीरते हैं, क्योंकि रंक से लेकर राजा तक सभी प्राणियों को संपत्ति या विपत्ति देने में एकमात्र पूर्व जन्म का कर्म ही समर्थ है। अन्य कोई समर्थ नहीं है। पूर्व में जिसने भी जैसा भी शुभाशुभ कर्म किया होता है, उसे उसी प्रकार से सुख - दुःख प्राप्त होता है । धान्य के पकने में उत्तरा के पवन की तरह आपका प्रभाव तो मात्र निमित्तता को ही धारण करता है। अगर ऐसा न हो, तो ये सभी तो आपकी एक समान ही सेवा करते हैं, फिर आपकी कृपा इन्हें अलग-अलग न्यूनाधिक सुखलक्ष्मी देने में आदरयुक्त कैसे है? हे देव! ये सभी मायावी आपकी इच्छानुसार ही बोल रहे हैं। जैसे नीच वैद्य मनइच्छित औषध बताता है, वैसे ही ये सभी कपटपूर्वक मुख से मीठा-मीठा बोल रहे हैं। खेद की बात है कि राजा कलावान होने के बावजूद भी सेवकों के खुशामद भरे वचनों के मद में आकर विवेक दृष्टि रहित होकर अहंकार को प्राप्त होते हैं । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, स्वभाव और भवितव्यता- ये सभी प्राणियों के कर्म का अनुसरण करके उन्हें तत्काल फल प्रदान करते हैं। अतः हे पिता ! आप तत्त्व को जानते हैं । फिर भी 'ये सभासद मेरी कृपा से सुख भोगते हैं' - इस प्रकार का गर्व करना ठीक नहीं है।"
इस प्रकार क्वाथ के समान परिणाम में हितकारी उस पुत्री के उन वचनों का आस्वादन करके राजा अत्यन्त कुपित हुआ । मानो संनिपात की व्याधि से ग्रस्त हुआ हो - इस प्रकार से प्रलाप करने लगा - "अरे! पितृद्वेषिणी! वाचाल ! सर्वदा मेरे प्रसाद को प्रत्यक्ष देखकर भी तूं कैसे उसका गोपन कर रही है? हे कृतघ्नी! हे दुष्ट ! हे वाचाल ! मेरे प्रसाद से अनेक वस्त्रों, अलंकारों आदि को भोगते हुए भी तूं यह क्या बकवास कर रही है?"
तब मदनमंजरी ने स्मित हास्य करते हुए विनयपूर्वक कहा - "हे देव! पुण्य के प्रभाव से ही मैं आपके घर में सुखी हूं। सौभाग्य, आरोग्य, दीर्घायुष्य, स्वामित्त्व और उच्च कुल आदि सभी पूर्व के पुण्य से ही होता है। पाप के उदय से वह सभी अन्यथा प्रकार से हो जाता