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216/ श्री दान-प्रदीप
को पण्डित मानती है। अतः मेरे गुणों को तृण के समान भी नहीं मानती। अपनी आत्मा की शत्रु बनकर यह अपने कर्मों को ही प्रमाण रूप मानती है। इसीलिए इसके कर्मों के कारण तुम्हें वर के रूप में यहां लाया गया है। तुम ही इसके योग्य हो।"
यह कहकर राजा ने विकस्वर मुखवाली मदनमंजरी को जीर्ण वस्त्र धारण करवाकर उस कुष्ठी के साथ परिणय-संबंध में बांध दिया। इस कार्य में कन्या की माता व अन्य परिजनों के द्वारा निषेध किये जाने पर भी राजा की क्रूरता तथा पुत्री के अत्यन्त धैर्य के कारण उन दोनों का विवाह हो गया। फिर राजा ने मदनमंजरी से कहा-"हे जड़बुद्धिवाली! अब तेरे सत्कर्म रूपी वृक्ष में मंजरी उग गयी है। इसका फल अब तूं मेरी नगरी का त्याग करके भोग।"
ऐसा कहकर राजा ने उसे विदा किया। तब उसने हर्षपूर्वक माता-पिता को प्रणाम किया और पति का हाथ पकड़कर खुशी-खुशी उसके साथ रवाना हो गयी। उस समय शोक से व्याप्त होकर नगर के लोग हाहाकार करने लगे। फिर वह कन्या अपने पति को प्रयत्नपूर्वक नगर के चौराहे पर लेकर आयी। तभी हाय-हाय करते हुए वह "मैं एक कदम भी नहीं चल सकता"-इस प्रकार बोलते हुए मानो मूर्छा खाकर जमीन पर गिर पड़ा। यह देखकर कई लोग राजा की निन्दा करने लगे, तो कई लोग पुत्री की निन्दा करने लगे। कई लोग भवितव्यता को धिक्कारने लगे।
फिर मदनमंजरी ने विनयपूर्वक अपने पति से कहा-“हे स्वामी! आप मेरे कन्धे पर चढ़ें, तो मैं आपको इच्छित स्थान पर ले जा सकती हूं।"
तब उसने अत्यन्त पीड़ित स्वर में कहा-"अगर राजा की आज्ञा हो, तो आज यहीं रहा जाय । कल समयोचित कुछ करेंगे।"
उन दोनों की इस बातचीत को सुनकर एक महाजन ने राजा को जाकर विनति की और उसकी आज्ञा लेकर उन दोनों को दयापूर्वक एक कोटड़ी में ले जाकर रखा। उसी महाजन ने उत्तम भोजन-पान तैयार करके उन दोनों को प्रदान किया। मदनमंजरी ने पहले अपने पति को भोजन करवाया और फिर स्वयं भोजन किया। फिर दुःखपूर्वक देखी जा सके-ऐसी उनकी दुर्दशा देखने में असमर्थ सूर्य मानो परोपकार न कर सकने के कारण उत्तम पुरुष की तरह अन्य स्थान को चला गया अर्थात् अस्त को प्राप्त हुआ। उस समय उसके मित्रों के मुख की तरह कमल भी मुरझा गये और उसके शत्रुओं के मुख की तरह कुमुदिनियाँ विकसित हुई।
"यह राजा वास्तव में अविचारी पुरुषों का सरदार है"-मानो इस तरह उच्च स्वर में