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194/श्री दान-प्रदीप
को क्लेश में डालेगा? पाप में प्रवृत्ति करनेवाले की तो इसी भव में मानो परस्पर स्पर्धा करती हुई संपदाएँ दिन-रात वृद्धि को प्राप्त होती हैं। वह इस प्रकार है-खेती आदि महाआरंभ के पाप-व्यापार को करनेवाले किसान संपत्ति के स्थान को प्राप्त होते हैं। खोटे व्यापार और परद्वेषादि करने रूप पाप से प्राप्त संपत्ति के द्वारा वणिकजन कुबेर के समान धनाढ्य देखने में आते हैं। इसी प्रकार दुष्ट शील और कुटिलतादि अनाचार का सेवन करने में तत्पर रहनेवाली वेश्याएँ देवांगनाओं की तरह भोगों को भोगती हैं। मैं भी शत्रुओं का घात और उनके नगर को लूटना आदि पाप करके भी सभी प्रकार से वृद्धि को प्राप्त करनेवाली राज्य-सम्पदा को भोगता हूं। तुम तो धर्म में ही तत्पर रहने के कारण लक्ष्मी का वैसा उपभोग नहीं कर पाते। तुम्हारे पास जो भी थोड़ी-बहुत संपत्ति है, वह भी मेरे द्वारा प्रदत्त है। वह संपत्ति तुम्हें पुण्य की निपुणता से प्राप्त नहीं हुई है। अगर ऐसा नहीं है, तो और किसी स्थान पर जाकर तुम मुझे पुण्य का फल दिखाओ।"
यह सुनकर मंत्री ने मन में विचार किया–“मेरा यात्रा का चिरकाल का मनोरथ आज सफल होनेवाला है। देशान्तर गये बिना मैं राजा को पुण्य का फल नहीं दिखा पाऊँगा। अतः अब मेरा परदेश जाना ही श्रेष्ठ है।"
ऐसा विचार करके राजा की आज्ञा स्वीकार करके उसी बहाने से आनंदपूर्वक शत्रुजय आदि तीर्थों की यात्रा करने के लिए निकल पड़ा। मार्ग में विविध प्रकार के तीर्थों को भक्तिपूर्वक वंदन करते हुए शत्रुजय पर्वत पर रहे हुए जिनेश्वरों को वंदन करने के लिए जाते हुए मार्ग में एक विशाल विकट अटवी में वह आया। उस अटवी में उसे भयंकर आकृतिवाला एक राक्षस मिला। उसे देखकर मंत्री ने मन में धीरज धारण करके उसे मामा का संबोधन देते हुए प्रणाम किया। तब राक्षस ने कहा-"अरे! तूं मुझे मामा मत कह, क्योंकि मैं सात दिवस से भूखा हूं। अतः मैं तुझे खानेवाला
यह सुनकर मंत्री ने कहा-"मैं अभी किसी बड़े कार्य को करने के लिए निकला हूं। वह कार्य करके शीघ्र ही वापस लौटनेवाला हूं। अतः मुझ पर कृपा करके मुझे अभी तो छोड़ दो। जब मैं वापस लौटूं, तब आप अपनी इच्छा पूर्ण कर लेना। मैं आपके ही आधीन हूं।"
ऐसी वाणी सुनकर प्रसन्न हुए राक्षस ने उसके पुण्य के प्रभाव से उसे छोड़ दिया। तब हर्षित होते हुए मंत्री अनुक्रम से अटवी पार करके तीर्थ में पहुंचा। वहां युगादीश को नमन करके अद्भुत रचना के द्वारा पूजा करके भक्ति द्वारा तल्लीन मनवाला बनकर वंदन करने लगा। उस समय उसके अंतःकरण की उदार भक्ति को साक्षात् देखकर उसके वशीभूत होता हुआ गोमुख नामक यक्ष प्रसन्न होकर उसके प्रत्यक्ष होकर बोला-“हे भद्र! तेरी भक्ति से मैं प्रसन्न हुआ हूं। अतः तूं अपनी इच्छानुसार वरदान मांग।"