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208 / श्री दान- प्रदीप
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भावार्थ:- पृथ्वी पर जल, अन्न और 'सुभाषित - ये तीनों ही रत्न हैं । जिन्होंने पत्थर के टुकड़ों को रत्न कहा है, वे मूढ़ हैं।”
यह सुनकर महाजनों ने उनका वचन अंगीकार करके उनसे क्षमायाचना की । फिर राम ने उन सब को उत्तम भोजन करवाकर विदा किया ।
अतः सर्वत्र अन्नदान की ही मुख्यता है । उसमें भी अगर पात्र को अन्नदान किया हो, तो वह विशेष रूप से प्रशस्त है । वृष्टि धान्य का उपकार करती है, पर अगर वही सीप में गिरती है, तो क्या उसमें मोती पैदा नहीं होता? पृथ्वी पर तो एकमात्र श्रेयांसकुमार ही कल्याण के निधान हैं, क्योंकि उसने युगादीश को सेलड़ी के रस का प्रथम दान किया था । उस श्रेयांसकुमार ने इस भरत क्षेत्र में सबसे पहले 'बहुधान्योपकारक पात्रदान रूपी जलधारा प्रवर्त्तित की थी । जातिस्मरण ज्ञान के द्वारा श्रेयांसकुमार ने अगर लोगों को पात्रदान की विधि न बतायी होती, तो मुनीश्वरों को क्या कल्पनीय है और क्या कल्पनीय नहीं है- यह कौन जान सकता था? पात्रदान के प्रभाव से ही शालिभद्रादि ने स्वर्ग के भोग के समान मनोहर अद्भुत समृद्धि प्राप्त की थी । अहो सुपात्रदान के माहात्म्य की कितनी प्रशंसा की जाय? केवल अन्नदान से ही स्वर्ग और मोक्ष की लक्ष्मी सुलभ होती है। जो मनुष्य अन्नदान करके यतियों को उपष्टम्भ / सहाय करता है, उसने परमार्थ से तीर्थ का अविच्छेद किया - ऐसा जानना चाहिए। धर्म शरीर से ही होता है । वह शरीर अन्न से ही टिका रहता है। पर वह अन्न घर रहित यतियों के पास नहीं होता । अतः बुद्धिमान मनुष्यों के द्वारा यतियों को अन्नदान करने में यत्न करना चाहिए। वह दान देय (देने योग्य वस्तु), दातार और ग्रहण करनेवाला - इन तीनों की शुद्धि से युक्त हो, तो वह मोक्ष के लिए होता है, क्योंकि शुद्ध बीज बोया गया हो, तो वह धान्य की संपत्ति के लिए होता है। जो वस्तु आधाकर्मादि बयालीस दोषों से अशुद्ध न हो, उसे विद्वान देयशुद्ध कहते हैं। ऐसी शुद्ध वस्तु का दान ही दातार को अत्यन्त शुद्ध फल की समृद्धि देनेवाला बनता है, क्योंकि कारण की शुद्धि से ही कार्य की शुद्धि बनती है। अगर सुपात्र को भक्तिवश अनैषणीय आहार का दान दिया जाय, दातार को फलप्राप्ति के समय अल्प आयुष्यादि 'दूषित फल प्रदान करता है। इस विषय में
वह
1. सुन्दर, प्रिय व न्याययुक्त वचन ।
2. अनेक प्रकार से अन्य का उपकार करनेवाली / अनेक धान्यों के लिए उपकारी ।
3. वह वास्तव में तीर्थ-शासन - प्रवचन - चतुर्विध संघ की रक्षा करता है - ऐसा कार्य-कारणों के नियम को देखते हुए निःशंक रूप से कहा जा सकता है।
4. अर्थात् दूषित आहार साधु को बहराने से दातार अल्प आयुष्य को बांधता है। ऐसा होने पर चाहे जितनी विशाल भोग-सामग्री दान-पुण्य से प्राप्त होने पर भी वह ज्यादा समय तक भोगी नहीं जा सकती। इस गम्भीर फलहानि का विचार करके भक्तिमान भव्यजनों को विवेक धारण करना चाहिए।