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209/श्री दान-प्रदीप
श्रीठाणांग सूत्र में कहा है
"तीन स्थानों के द्वारा जीव अल्पायुष्य का बंध करता है-1. जीवों का अतिपात-विनाश करके, 2. मृषावाद का सेवन करके और 3. तथारूप के श्रमण, माहणादि (श्रावकादि) को अप्रासुक, अनैषणीय अशन, पान खादिम, स्वादिमादि का प्रतिलाभ करवाने से। जो मनुष्य इन तीन कारणों का सेवन करता है, वह अल्पायुष्य को बांधनेवाला कर्म करता है।"
शुद्ध दान लेने से ग्रहण करनेवाले को भी परिणाम में हितकारक बनता है, क्योंकि देय वस्तु की शुद्धि के बिना चारित्र की शुद्धि नहीं हो सकती। अशुद्ध आहार का भोजन करनेवाले यतियों को जिनेश्वर की आज्ञा का भंग तथा मिथ्यात्व आदि लाखों दुःखों को प्रदान करनेवाले दोष लगते हैं। इस विषय में पाँचवें अंगशास्त्र में कहा है
"हे भगवन! आधाकर्म दोषयुक्त आहार का भोजन करता हुआ श्रमण निर्ग्रन्थ क्या बांधता है? क्या करता है? क्या एकत्रित करता है? क्या वृद्धि को प्राप्त करवाता है?"
भगवान कहते हैं-"हे गौतम! आधाकर्म को भोगता हुआ श्रमण निग्रंथ आयुष्य कर्म छोड़कर अन्य सात कर्म प्रकृतियों के शिथिल बंध को गाढ़ बंधवाली बनाता है। थोड़े काल की स्थिति को लम्बे काल की स्थिति बनाता है। मंद रस को तीव्र रस करता है। अल्प प्रदेशयुक्त को अनेक प्रदेशयुक्त बनाता है। आयुष्य कर्म कदाचित् बांधता है, कदाचित् नहीं बांधता है। अशाता वेदनीय कर्म को बार-बार वृद्धि प्राप्त करवाता है। अनादि, अनंत, लम्बे मार्ग से युक्त चतुरंत संसार रूपी अटवी में भ्रमण करता ही रहता है।" ।
गौतमस्वामी ने पूछा-“हे भगवन! आप किस कारण से ऐसा कहते हैं कि आधाकर्मी आहार का सेवन करनेवाला श्रमण निर्ग्रन्थ यावत् भ्रमण करता है?"
भगवान कहते हैं-“हे गौतम! आधाकर्मी आहार का सेवन करता हुआ निर्ग्रन्थ अपने धर्म का उल्लंघन करता है और अपने धर्म का उल्लंघन करता हुआ वह पृथ्वीकाय की दया नहीं रखता यावत् त्रसकाय की भी दया नहीं रखता। वह जिन-जिन जीवों के शरीर का आहार करता है, उन-उन जीवों की भी दया नहीं रखता। अतः हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि आधाकर्म को भोगता हुआ साधु यावत् संसार कान्तार में भ्रमण करता ही रहता है।"
दातार मनुष्य साधु को दान देते हुए विचार करता है कि-"अहो! यह मेरा वित्त (वस्तु) शुद्ध है, मेरा चित्त भी श्रद्धायुक्त है और यह सुपात्र साधु भी सर्व गुणलक्ष्मी का पात्र अर्थात् स्थान है। किसी के पास केवल वित्त होता है, किसी के पास केवल चित्त होता है। किसी के पास कदाचित् दोनों होते हैं। पर मुझे तो आज वित्त, चित्त और सुपात्र-तीनों ही मिले हैं।"