________________
199/श्री दान-प्रदीप
अक्षय सुख नहीं है, तो उनसे नीचे रहनेवाले देवों के अक्षय सुख का तो कहना ही क्या? वैसा अक्षय सुख तो समग्र कर्मों के क्षय रूप मोक्ष में ही है और उस अक्षय सुख की प्राप्ति तो निष्कर्म मार्ग में रहनेवाले को ही होती है। अधर्म की तरह पुण्य रूपी धर्म का भी क्षय होने से ही मोक्ष मिलता है, क्योंकि धर्म मोक्ष में जानेवाले पुरुष के लिए स्वर्ण की बेड़ी के समान है। अतः मोक्ष प्राप्त करने की इच्छावाले उत्तम पुरुष कर्ममार्ग का सर्वथा त्याग करके निष्कर्म मार्ग को ही स्वीकार करते हैं। प्रथम तीर्थकर ने हमेशा धर्म और न्याय का ही विस्तार किया था, पर फिर भी उन्होंने उनका परित्याग करके मोक्ष पाने के लिए सर्व संवर को धारण किया था। भरत चक्री भी निरन्तर श्रावकों की भक्ति, तीर्थयात्रा और जीर्णोद्धार आदि धर्मकृत्यों में प्रवर्तित थे, पर उन्होंने भी मुक्ति-प्राप्ति के लिए सर्व संवर को अंगीकार किया था। सगर चक्री हजारों देवों के द्वारा सेवित थे, उन्होंने भी मोक्ष पाने की उत्सुकता में छ: खण्ड के साम्राज्य का विषवत् त्याग किया। हरिषेण ने सम्पूर्ण पृथ्वी को जिनचैत्यों के द्वारा शोभित किया था, उसने भी मोक्ष को पाने के लिए चारित्र को अंगीकार किया। श्रीराम ने अपनी संतति के समान अपनी प्रजा का पालन किया था, अपने राज्य को नीति व धर्म से अलंकृत किया था, उन्होंने भी मोक्ष के प्रति उत्सुक होकर तृणवत् राज्य का परित्याग किया। अन्य भी महाभुज पराक्रमयुक्त पाण्डव आदि ने मोक्ष के अर्थी बनकर विशाल साम्राज्य का परित्याग करके सर्वसंयम को धारण किया था।
__ और भी, तुमने जो धर्म के स्थान पर मंत्री का दृष्टान्त दिया था तथा द्वितीय पाये ने अर्थ के स्थान पर दण्डवीर्य का दृष्टान्त दिया था, उन दोनों ने भी मुक्ति के लिए उद्यमवन्त होकर दानादि अद्भुत धर्म का और अद्भुत संपत्ति का त्याग करके सर्व संवर धारण किया था। अतः सर्व पुरुषार्थों में मोक्ष की ही मुख्यता है। उसी के लिए विद्वान पुरुष
धर्म, अर्थ और काम का त्याग करते हैं।" । यह सुनकर विद्वानों में श्रेष्ठ तीसरे पाये ने कहा-"तुमने जो मोक्ष की मुख्यता बतायी,
वह सत्य है। पर अभी हममें मोक्ष साधने की योग्यता नहीं है, क्योंकि उसे साधने में सम्यग् । ज्ञान, दर्शन और चारित्र से युक्त पुरुष ही शक्तिमान होता है। धर्म भावपूजा रूप कहलाता
है। वह भी हममें घटित नहीं हो सकता, क्योंकि लेशमात्र भी विरति स्वीकार करने में हम । समर्थ नहीं है। पर हम द्रव्यपूजा रूपी धर्म को करने में शक्तिमान हैं। अतः उस धर्म की
आराधना में हमें उद्यम करना चाहिए। दुःखपूर्वक प्राप्त करने योग्य मनुष्य जन्म, आर्य क्षेत्र, उत्तम कुल और नीरोगता धर्म से ही प्राप्त हो सकते हैं, जो कि सिद्धि प्राप्त करने में साधन रूप हैं। अभी तो रात भी बहुत बाकी है। अतः अभी ही शाश्वत चैत्यों के द्वारा सुशोभित वैताढ्य पर्वत पर जाकर हम अरिहन्तों की द्रव्यभक्ति करें, क्योंकि एकमात्र जिनभक्ति ही सर्व