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203 / श्री दान- प्रदीप
भी प्राप्त होता है, वह सब पूर्वजन्म के कर्मों के अनुसरण के द्वारा ही प्राप्त होता है। तीन दिव्य वस्तुएँ के साथ यह विशाल साम्राज्य तुमने जिस पुण्य के द्वारा प्राप्त किया है, उसे सुनो
भरत क्षेत्र की भूमि रूपी स्त्री के स्वर्ण - कुण्डल रूप और अक्षय मंगल लक्ष्मी के रहने के स्थान रूप मंगलपुर नामक नगर है। उस नगर का पालन पृथ्वीपाल नामक राजा करता था। उसकी आज्ञा को अनेक राजा अपने नम्र मस्तक पर धारण करते थे । उसकी प्रताप रूपी अग्नि को शत्रु राजा की स्त्रियों के नेत्राश्रु रूपी नवीन मेघ वृद्धि को प्राप्त करवाते थे - - यह आश्चर्य की बात थी। उस नगर में 'पुरुषोत्तम, सुदर्शन को धारण करनेवाला और 'श्रीमान—–मानो द्वितीय 'लक्ष्मीधर हो - ऐसा लक्ष्मीधर नामक श्रेष्ठी रहता था । बुद्धिनिधान वह श्रेष्ठी राजा के राज्यकार्य की धुरा का भार वहन करने में ही धुरन्धर नहीं था, बल्कि शुद्ध जैनधर्म की सम्यग् आराधना करने में भी धुरन्धर था ।
एक बार उस नगर में श्रुत - पारगामी और सद्धर्म रूपी उद्यान को पल्लवित करने में वर्षाऋतु के समान धर्मसार नामक उत्तम गुरु पधारे। यह जानकर पृथ्वीपाल राजा, नगरजन और लक्ष्मीधर भी अहंपूर्विका के द्वारा गुरु के पास आकर उन्हें विधियुक्त वंदन करके गुरु के समीप बैठे। फिर राजादि सभी ने उत्सुकतापूर्वक गुरु के पास समग्र संशयों का नाश करनेवाली धर्मदेशना का श्रवण किया। उस समय गुरुदेव का मात्र कंबल रूपी आसन देखकर लक्ष्मीधर श्रेष्ठी का भक्ति में स्फुरायमान प्रसन्न मन खेदखिन्न हो उठा। अतः उसने अपने चित्त के समान उच्च, अपने पुण्य के समान निश्चल और अपने आनंद की तरह विशाल एक उत्तम पाट अपने घर से मँगवाकर हर्षपूर्वक गुरु के पास रखकर उस पर बैठने के लिए अत्यन्त प्रार्थना की—–“हे भगवन! आप तीन जगत के पूज्य हो । गुणों की सम्पत्ति के द्वारा भी आप विशाल हैं । अतः नीचे आसन पर बैठना आपके लिए उपयुक्त नहीं | आप जैसे महात्मा सिंहासन पर बैठे हुए ही शोभित होते हैं, क्योंकि श्रेष्ठ रत्न का स्थापन स्वर्णालंकार में ही होता है। अतः आप मुझ पर प्रसन्न होकर इस पाट पर विराजें और मेरे पापों का नाश करें, क्योंकि महात्मा दूसरों पर अनुग्रह करने में आग्रही होते हैं ।"
यह सुनकर मनोहर वाणी बोलनेवाले श्रेष्ठ गुरुदेव ने कहा - "हे मतिमान ! तुम निष्कपट भक्ति के कारण इस प्रकार से विनति कर रहे हो। पर साधुओं को वर्षाकाल में ही जीवदया के लिए काष्ठ का शयन और आसन रखने के लिए जिनेश्वरों ने कहा है । शेषकाल के आठ मास में ऊन का आसन रखने के लिए कहा है। अमूढ़लक्षी सर्वज्ञ वही कहते हैं, जिसमें हित
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1. कृष्ण का दूसरा नाम / पुरुषों में उत्तम 3. लक्ष्मी नामक स्त्री से युक्त / धनवान |
2. सुदर्शन नामक चक्र / समकित |
4. कृष्ण ।