________________
158/श्री दान-प्रदीप
मैं इसके घर पर ही गुरु की स्थापना करवाऊँ-यह योग्य होगा।"
ऐसा विचार करके राजा ने मंत्री से कहा-"अपार राजकार्यों के समूह के व्यापार में तुम व्यग्र रहते हो। अतः गुरु के पास जाने का ज्यादा समय तुम्हें नहीं मिल पाता होगा। अतः हे मंत्रीश! तुम अपने घर पर ही मुनियों को रखो और उनके पास विधिप्रमाण धर्म का श्रवण करो, क्योंकि अपार संसार-सागर में धर्म नौका के समान है। सभी आपत्तियों का नाश करने में धर्म केतु के समान है। सभी सुख-सम्पदाओं का कारण धर्म ही है। धन, स्वजन और शरीरादि भी अगर धर्म के उपयोग में न आते हों, तो सभी प्राणियों को दुरन्त दुर्गति में गिराने के हेतुरूप बनते हैं।"
इस प्रकार राजा की आज्ञा होने से उसकी आज्ञा के वश में होने के कारण मंत्रीश्वर ने गुरु को अपने घर में स्थापित किया और राजा की दाक्षिण्यता से हमेशा उनके पास धर्मश्रवण करने लगा। पुरुषों में दाक्षिण्यता का गुण होना भी कम बात नहीं है। गुरु के सरस उपदेशों को सुनकर मंत्री विस्मित होता था। शक्कर को अगर जबरन मुख में डाला जाय, तो क्या वह मुख मीठा नहीं करती? गुरु की दूषण रहित सर्व क्रियाओं को देखकर मंत्री उनकी अनुमोदना करता था-"ये मुनि जितेन्द्रिय हैं, शांत स्वभावी हैं, सम्यग् आचार में प्रवृत्ति करते हैं। अहो! निरंतर संगरहित हैं। संवेग रूपी अमृत के सागर हैं। स्वाध्याय-ध्यान में तत्पर रहते हैं। शास्त्रोक्त विधि को करते हैं। उनका कथित धर्म पूर्वापर विरोध व दूषण से रहित है।"
इस प्रकार धर्म के प्रति अनुराग पैदा होने से मंत्री ने बोधिबीज का उपार्जन किया। पर भाग्यहीन होने से उसने धर्म अंगीकार नहीं किया। बौना और लूला पुरुष क्या आम्र का स्वादिष्ट फल तोड़कर चख सकता है? जो मनुष्य जैनधर्म को नहीं जानते, वे पुण्यरहित हैं और जानते हुए भी जो उसका आचरण नहीं करते, वे अत्यन्त पुण्यहीन हैं। अन्य-अन्य उपायों के द्वारा भी मंत्री को धर्म न अंगीकार करते हुए देखकर बुद्धिमान पृथ्वीपति ने विचार किया-"मेरे जैसे मित्र के होते हुए भी यह प्रतिबोध को प्राप्त नहीं होता। अतः ज्ञात होता है कि इसका चारित्रावरण कर्म अत्यधिक बलवान है। अब इसे प्रतिबुद्ध करने का वृथा उपाय क्यों करुं? बंजर भूमि में बीज बोने का क्या फल? अहो! प्राणियों को संसार में धर्म रूपी अंग की सामग्री मिलना अत्यन्त दुर्लभ है। अतः अब मैं ही गुरु के पास विशेष रूप से धर्म अंगीकार करूं। जैसे-जैसे मूढ़ पुरुष धर्म में प्रमादी दिखायी देते हैं, वैसे-वैसे भव्य प्राणियों का रंग धर्म में दृढ़ होता है।"
इस प्रकार विचार करके संवेग रस में अत्यन्त दृढ़ हुए राजा ने अन्य अमात्यों, सामन्तों आदि को स्वर्ण, रत्न, वस्त्रादि का दान देकर समग्र पृथ्वी पर रहे हुए संघ-साधर्मीजनों का