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162 / श्री दान- प्रदीप
क्लेश का त्याग कर दिया था । उस नगर में शत्रुओं को त्रास उत्पन्न करनेवाला, बल का एकमात्र स्थान और समग्र राजाओं का शेखर रूप शेखर नामक राजा राज्य करता था । उस राजा ने पृथ्वी को निरन्तर सर्वथा प्रकार से अनीति भाव को प्राप्त करवाया था, फिर भी नीति के द्वारा पृथ्वी को सुशोभित भी किया था । यह आश्चर्य उत्पन्न करनेवाली बात थी । उस राजा की कृपा का स्थान रूप, निःसीम गुणों का भण्डार और पुण्यशाली लोगों के मध्य तिलक के समान तिलक नामक श्रेष्ठी था । उसकी कीर्ति त्रिभुवन में वृद्धि को प्राप्त हो रही थी और उसका घर धन से वृद्धि को प्राप्त हो रहा था । उसका यश और धन परस्पर ईर्ष्या भाव को धारण करके बढ़ने में एक-दूसरे की स्पर्द्धा कर रहे थे। उस राजा के शील रूपी सिंह के रहने की गुफा के समान रतिसुन्दरी नामक मनोहर प्रिया थी । वह चलती-फिरती मूर्त्तिमान लक्ष्मी ही प्रतीत होती थी। वह सर्वांग में रति के समान अद्भुत सुन्दरता को धारण करके अपने नाम की यथार्थता का ही विस्तार करती थी। उन दोनों का दयालू हृदय मजीठ से रंगे हुए वस्त्र की तरह कभी नाश न होनेवाले जिनधर्म के रंग से रंजित था। धर्मकार्य की तत्परता के कारण उस दम्पति की समग्र कलाएँ नेत्रों के द्वारा मुख की शोभा की तरह अत्यन्त शोभित होती थी । स्थिर प्रेम को धारण करनेवाले उस दम्पति ने अविच्छिन्न सुख भोगने के कारण अनेक वर्षों को मनोहर दिवसों की तरह व्यतीत किया
था ।
एक बार रात्रि के पिछले प्रहर में जागृत हुए श्रेष्ठी ने पंच परमेष्ठी का स्मरण करते हुए अपने स्वरूप का स्पष्ट रूप से विचार किया कि - " मेरी स्त्री सुशील से युक्त, कोमल वाणी बोलनेवाली, मुझ पर अपार भक्ति धारण करनेवाली, मेरे चित्त का अनुसरण करनेवाली, मेरे मन के विश्राम का स्थान और मेरे घर का भूषण है । मेरे घर में धान के ढ़ेर की तरह स्वर्ण, रजत और रत्नों के इतने ढ़ेर हैं, जिनकी गिनती भी नहीं की जा सकती । वस्त्र, कपूर, कस्तूंरी आदि वस्तुएँ समुद्र के जल की तरह अपार हैं। मेरे घर में चपल गतियुक्त, विशाल, मनोहर और पवन वेग से युक्त अश्व मानो अलक्ष्मी को भय प्राप्त करवा रहे हों - इस प्रकार से हेषारव करते रहते हैं । अन्य भी गाय, बैल, ऊँटादि चौपाये वन की तरह मेरे घर में अनगिनत हैं। मेरा अपार परिवार हर समय मेरी आज्ञा के पालन में तत्पर रहता है । मेरा समग्र बंधुवर्ग भी मुझ पर गाढ़ प्रीति रखता है । मुझ पर राजा की कृपा भी कल्पवृक्ष की तरह है । पुरजन भी अत्यन्त प्रीतिपूर्वक मेरा बहुमान करने में तत्पर रहते हैं । इस प्रकार मेरी गृहस्थाश्रम रूपी लता सर्व भोगों से पल्लवित होने के बावजूद भी संतति रूपी फल से रहित
1. मुकुट । 2. अनीति को प्राप्त करवाकर नीति से सुशोभित करना - यह विरोधाभास अलंकार है । इसके परिहार के लिए अनीति अर्थात् अन्+इति अर्थात् पृथ्वी को सात प्रकार की इति / भय / उपद्रव से रहित किया था - यह अर्थ जानना चाहिए ।