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179 / श्री दान- प्रदीप
दिन काष्ठ की शय्या लेने के लिए दो साधु ग्राम में घूमते-घूमते उस नंदन श्रेष्ठी के पूर्वजन्म के पुण्ययोग से मानो जंगम कल्पवृक्ष के समान उसके घर पर आये । मूर्त्तिमान धर्म की तरह उन दोनों मुनियों को अपने घर के आँगन में आये हुए देखकर हर्ष के रोमांच से व्याप्त नंदन तत्काल उठकर खड़ा हुआ । सात-आठ कदम उनके सम्मुख जाकर भक्ति से विधिपूर्वक वंदन करके हाथ जोड़कर कहा - " अहो ! आज मेरे गृहांगन में आपका आगमन हुआ है। यह तो बिना बादलों की वृष्टि के समान है। मारवाड़ प्रान्त की रेतीली भूमि पर कल्पवृक्ष के उगने के समान है। अमावस्या की रात्रि में चन्द्रोदय के समान है । बंजर खेत में धान्य के पकने के समान है। पर्वत के शिखर पर कमल के खिलने के समान है । आप कृपा करके आपके आने का प्रयोजन बतायें, जिससे बसंत ऋतु के द्वारा लता की तरह मेरा प्रेम वृद्धि को प्राप्त हो अर्थात् मेरे हृदय में अधिक प्रीति उत्पन्न हो ।”
तब उन दोनों में से जो ज्येष्ठ थे, उन्होंने कहा - "हम हमारे गुरुदेव की आज्ञा से आपके पास काष्ठ की शय्या की याचना करने आये हैं ।"
यह सुनकर श्रेष्ठी अत्यन्त प्रसन्न हुआ और कोमल, निर्मल और श्रेष्ठ सांधों से युक्त शुद्ध काष्ठ का बना हुआ, बिना टूटा हुआ, छिद्ररहित व दोषरहित लम्बा शयनीय- जो कि मानो उस श्रेष्ठी के गुणों का ही समूह हो - इस प्रकार उनको दिखाया और हर्षपूर्वक कहा—“आप प्रसन्न मन से इस शयनीय को ग्रहण करें। हमेशा इसका उपयोग करें और आज से यह शयनीय आपके ही आधीन है।”
यह सुनकर ज्येष्ठ साधु ने कहा - "हे श्रेष्ठी ! तपस्वियों को केवल वर्षाकाल में ही काष्ठ की शय्या कल्पनीय है । हमेशा कल्पनीय नहीं है । अतः यह शय्या तो आपकी ही है। हम तो इसे मात्र कार्त्तिक मास की पूर्णिमा तक ही रखनेवाले हैं।"
यह सुनकर नंदन ने आनंदयुक्त व विनयपूर्वक कहा - " जैसी आपकी मर्जी ।"
फिर उस नंदन श्रेष्ठी ने विशाल, निर्मल व विविध प्रकार के अनुकूल गुणों (डोरों) से बना हुआ अपने परलोक के भाते के समान एक कम्बल भी प्रदान की । श्रेष्ठी की भावना व उसका अत्यन्त हर्ष देखकर तथा उन दोनों वस्तुओं को एषणीय जानकर अनुग्रह करने में तत्पर वे साधु उन दोनों वस्तुओं को लेकर अपने गुरु के पास आये। ईर्यापथिकी का प्रतिक्रमण करके दोनों वस्तुएँ गुरु को दिखायीं । उस शय्या पर उस कम्बल का संथारा बिछाकर उस पर सूरिराज विश्रान्ति लेने लगे । अहो ! श्रेष्ठी का कैसा भाग्य ! स्वाध्याय, धर्मदेशना, ध्यान, वाचना और अध्यापन आदि द्वारा थके हुए श्रीगुरुमहाराज श्रुत की नीति द्वारा उस पर विश्रान्ति लेते थे। उस शय्या और संस्तारक पर विश्रान्ति लेते हुए गुरु महाराज