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177/श्री दान-प्रदीप
दिया और कहा-"इस नमस्कार का स्मरण मात्र करने से प्राणियों की भव-भव की विपत्तियाँ नष्ट होती हैं और संपत्तियाँ प्राप्त होती हैं। कहा है कि अगर प्राणियों के कण्ठ में श्रीनमस्कार मंत्र का आलोटन होता हो, हृदय में रटन चल रहा हो, तो भूतप्रेत उनके चाकर बन जाते हैं, व्यन्तर विघ्न नहीं कर सकते, यक्ष उनकी रक्षा में तत्पर बन जाते हैं, विविध प्रकार की व्याधियाँ उन्हें बाधित नहीं करतीं और अग्नि, जल व विषादि से उत्पन्न भयंकर उपसर्गादि उसका अपकार नहीं कर सकते। यह मंत्र समग्र मंगलों में प्रथम मंगल है और सभी आगमों का रहस्य है-ऐसा ज्ञानीजन कहते हैं। जिनेश्वरों की पूजा के साथ इस मंत्र का लाख बार जाप करने से तीर्थंकर नामकर्म का भी बंध होता है। इसमें कोई संशय नहीं
___ अतः हे भद्र! तुम इस मंत्र को हृदय में धारण करो और निरन्तर इसका स्मरण करो। ऐसा करने से सभी अद्भुत समृद्धियाँ तुम्हें अपने आप ही अनायास प्राप्त होंगी।"
यह सुनकर पल्लीपति ने मुनि के पास उस मंत्र को विधिवत् सीखा। अपने लिए कल्याणकारक हो, उसको कौन बुद्धिमान नहीं अपनाता? मुनि के पास से चिंतामणि रत्न के समान दुर्लभ मंत्र को प्राप्त करके अपनी आत्मा को धन्य मानते हुए उस पल्लीपति ने मुनि को वंदन किया और अपने घर लौट गया। उसने अपनी प्रिया को भी नमस्कार मंत्र सिखाया। उसने भी उस मंत्र को मोतियों के हार की तरह अपने कण्ठ में सुसज्जित किया। उस दम्पति ने हमेशा उस मंत्र की तप, स्तुति, जाप, ध्यान और पूजादि सर्व विधिपूर्वक और जावज्जीव आराधना की। उसके बाद आयुष्य पूर्ण होने पर मरण प्राप्त करके पल्लीपति का जीव उस पुण्य के प्रभाव से तुम्हारे रूप में राजा बना है। उसकी पत्नी भी मरण प्राप्त करके तेरी प्रिया रत्नमंजरी बनी है।
अहो! जगत में नमस्कार रूपी रत्न की अद्भुत शक्ति है, क्योंकि वह एकमात्र मंत्र ही सर्व सम्पदा का प्रदाता है।"
इस प्रकार अपने पूर्वभव का श्रवण करके प्रिया सहित राजा को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। मनोहर संवेग प्राप्त होने से उसने गुरु महाराज से कहा-“हे पूज्य! आप कुछ समय तक मेरी राह देखें। मैं घर जाकर अपने पुत्र को राजगद्दी पर बिठाकर दीक्षा ग्रहण करने के लिए वापस लौटकर आता हूं।"
यह सुनकर सूरि ने उसे उत्साहित करते हुए कहा-“हे राजा! तुम धन्य हो! तुम्हारा जन्म पवित्र है। वास्तव में तूं ही तत्त्व का ज्ञाता है, क्योंकि तुम्हारी बुद्धि प्रतिबन्ध-रहित है। अतः हे शिष्ट! तूं विलंब मत कर, क्योंकि धर्म के कार्य में अनेक विघ्न उपस्थित होते हैं।"