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166 / श्री दान- प्रदीप
रूप में उत्पन्न हुए। पद्माकर ने पिता की सर्व मरण क्रियाएँ कीं। उसके बाद बंधुओं ने मिलकर पद्माकर को अपने पिता के स्थान पर स्थापित किया । विशाल वैभवयुक्त पद्माकर ने केवल घर के भार को ही नहीं उठाया, बल्कि सर्व प्रकार से जिनभाषित धर्मकार्य की धुरा को भी उठाया ।
एक बार प्रातःकाल के समय पद्माकर ने अपने घर के पास कभी नहीं देखा - ऐसा अद्भुत, मनोहर एक श्वेत महल देखा। उस महल की दीवारें देदीप्यमान स्फटिक मणि से निर्मित थीं । वह महल स्वर्ण के स्तम्भों से सुशोभित था । उसका द्वार रत्नों के तीन तोरणों से सुशोभित था । विमानों का भी तिरस्कार करनेवाली चित्रशाला से वह अद्भुत प्रतीत होता था । किसी जगह उत्तम धान्य के भरे हुए कोठार थे, तो कहीं स्वर्ण, रजत व रत्नों का समूह व्याप्त था । कहीं सुन्दर दुकूलादि के वस्त्र सुशोभित थे, तो कहीं चांदी, ताम्बे आदि के बर्तन से शोभा द्विगुणित हो रही थी। उस मन्दिर का मध्य भाग चार वासगृहों के द्वारा अलंकृत था । वे वासगृह दिव्य स्वर्ण के पलंगों और भद्रासनों से युक्त तथा मणि-स्वर्ण के असंख्य सारभूत अलंकारों - आभूषणों से भरा हुआ था। साथ ही मोतियों के झुमकों से शोभित चंदोरबों से देदीप्यमान हो रहा था । सुगन्धित उत्तम धूप के द्वारा चारों तरफ महक व्याप्त हो रही थी । उनके अन्दर झिलमिलाते मणियों के दीप झलक रहे थे। इस तरह लक्ष्मी के निवास करने योग्य वे आवास शोभित होते थे। ऐसे महल को देखकर पद्माकर का मन आश्चर्य से अत्यन्त विकस्वर हुआ ।
उस महल का वर्णन सुनकर राजा भी अनेक पुरजनों के साथ वहां आया और उस अद्भुत आश्चर्यकारी महल को देखकर अत्यन्त प्रसन्नता को प्राप्त हुआ। फिर राजा, पुरजन व पद्माकर आदि परस्पर विचार-विमर्श करने लगे - "क्या यह कोई इन्द्रजाल है? या हमारी मति का भ्रम है? या किसी ने हमारी दृष्टि को बांध रखा है? या देव का कोई विलास है? क्या यह स्वर्ग से विमान उतरकर आया है?"
उस समय आकाश में दिव्य वाणी प्रकट हुई - "हे पुत्र पद्माकर ! स्वच्छ वत्सलता के रस से शोभित, तेरे अगण्य पुण्यों से प्रेरित चित्तयुक्त और स्वर्ग में देवरूप में उत्पन्न तेरे पिता ने तेरे लिए इस महल का निर्माण किया है। उसमें रहकर तूं निरन्तर इच्छानुसार देव के समान भोगों को भोग ।"
यह सुनकर पण्डितों में अग्रसर राजा चित्त में चमत्कृत हुआ । उसने आनदंपूर्वक पद्माकर को उस महल में रहने की आज्ञा प्रदान की । फिर "अहो ! धर्म की महिमा महान है!” – इस प्रकार आश्चर्य से पद्माकर की प्रशंसा करते हुए राजा पुरजनों के साथ अपने महल में लौट आया। फिर पद्माकर ने चारों वासगृहों में क्रमानुसार अपनी चारों प्रियाओं को रखा और विस्तारयुक्त भोगों को उन चारों के साथ भोगने लगा । वह कदाचित् अन्य किसी