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172/श्री दान-प्रदीप
राजकुमार अपने आवास महल से निकला। उसके आगे वाद्यन्त्र बज रहे थे। नटिनियाँ नृत्य कर रही थीं। इस प्रकार उत्सवपूर्वक वह राजा के महल के पास आया। द्वार पर रानी ने लवणादि उतारने का रीति-रिवाज किया। उसके बाद राजपुत्र ने विवाह मण्डप में प्रवेश किया। वहां अग्नि की साक्षी में शुभ मुहूर्त में मंगल गीतपूर्वक विद्याधर राजा ने अपनी पुत्री का विवाह कुमार के साथ किया। पाणिमोचन (हथलेवा छुड़ाने) की क्रिया के समय विद्याधरेन्द्र ने कुमार को श्रेष्ठ अलंकार, वस्त्र, विविध प्रकार के पाठ बोलने से ही सिद्ध होनेवाली विद्याएँ प्रदान की। उसके बाद कुमार वधू को लेकर विशाल ऋद्धि के साथ अपने आवास स्थान पर लौटा। उन दोनों का कृष्ण और लक्ष्मी की तरह परस्पर गाढ़ प्रेम हुआ।
एक बार कुमार अपने महल के उद्यान में प्रिया के साथ क्रीड़ा कर रहा था। उस समय अकस्मात् आकाश मार्ग से उड़ता हुआ कोई तोता उसके हस्तकमल में आकर बैठ गया। कुमार ने अपने क्रीड़ा-पोपट को पहचान लिया। प्रीतिपूर्वक उसका आलिंगन करते हुए हर्षपूर्वक उससे पूछा-“हे शुकराज! माता-पिता और पुरजनों का कुशल समाचार कह। सुनने के लिए मेरा मन अत्यन्त उत्कण्ठित है।"
तब शुक ने कहा-"उस समय हाथी ने तुम्हारा हरण किया यह जानकर तुम्हारे माता-पितादि सभी लोग अत्यन्त दुःख को प्राप्त हुए। निरन्तर तुम्हारे वियोग के दुःख से निकलते अश्रुओं से उनके नेत्र सदा ही भीगे रहते हैं। उनका चेतन शरीर में से निकल गया हो ऐसा प्रतीत होता है। अत्यन्त शोक-संतप्त होकर वे चित्रलिखित-से सर्वदा महाकष्ट में दिन व्यतीत कर रहे हैं। मैं भी तुम्हारे वियोग से अत्यन्त दुःखी होकर मूर्छा को प्राप्त हो गया था, पर तुम्हारे पुण्य के प्रभाव से ही मुझे जीवनदान मिला है। फिर मैंने उन सभी से कहा-हे राजादिक सभी सुनो! एक मास के अन्त में कुमार को अथवा उसके समाचार को मैं न लाऊँ, तो ज्वाला की श्रेणि के द्वारा प्रचण्ड अग्निकुण्ड में मैं प्रवेश करूंगा। अतः आप सभी विषाद को छोड़कर स्वस्थ बनें। इस प्रकार की प्रतिज्ञा करके मैं नगर से बाहर निकला। सर्व ग्रामों और उद्यानों आदि में मैं बहुत घूमा। पर जैसे भाग्यहीन पुरुष निधि को प्राप्त नहीं करता, उस प्रकार मैंने भी तुमको कहीं नहीं देखा। पर आज भाग्य के योग से दृष्टि को आनंद प्राप्त करवानेवाले तुम्हारे दर्शन करके बहुत अच्छा लगा। अब तुम विलंब न करो। पिता आदि के दुःख को दूर करने के लिए शीघ्र ही यहां से चलो, क्योंकि एक मास की अवधि भी पूर्ण होने को है।"
यह सुनकर कुमार के नेत्र अश्रुओं से व्याप्त हो गये। उसने विचार किया-"विषय सुख में मूढ़ हुए मुझे धिक्कार है! यहां रहकर मैंने दुर्बुद्धि के द्वारा स्वभाव से वत्सलता धारण करनेवाले माता-पिता, परिजनादि को ऐसी कष्टकारक दशा तक पहुंचा दिया है। जो निरन्तर सेवा करके माता-पिता को सुख पहुँचाते हैं, वे पुत्र ही प्रशंसनीय है। अब मेरा यहां