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170/श्री दान-प्रदीप
पीछे छिपकर कुमार ने विचार किया-"अहो! मनोहर आकृति से युक्त इस कन्या का मुख चन्द्रमा को भी दास बनाता है। इसका रूप स्वर्ण की शोभा को भी जीतता है। इसका वेणीदण्ड भ्रमरियों की शोभा का निराकरण करता है। इसके नेत्र श्याम कमल का निस्तार करते हैं। इसका क्या वर्णन करूं? इसका समग्र शरीर विकस्वर सौभाग्य को धारण करता है। प्रतीत होता है कि यह किसी के विरह से पीड़ित है और किसी भाग्यवान के विश्व के अद्भुत सौभाग्य को प्रकट करती है।" __इस प्रकार वह कुमार विचार कर ही रहा था कि पलंग पर रही हुई वह कन्या अपनी सखी चंपकलता से इस प्रकार कहने लगी-हे चंपकलता! विरह से पीड़ित मैं अपने मनोहर घर को छोड़कर यहां वसंत की लक्ष्मी से शोभित इस उद्यान में आयी हूं, पर फिर भी अग्नि से तप्त के समान कामज्वर से पीड़ित मेरा शरीर थोड़ी भी शांति को प्राप्त नहीं कर पा रहा है। यह पुष्पमाला मुझे अग्नि के समान लगती है। भ्रमरों के गुंजारव मुझे आक्रन्दन (रुदन) की तरह प्रतीत होते हैं। कोयलों के समूह का शब्द विलाप के समान लगता है। आम्रवृक्ष की मंजरी ज्वाला के समान लग रही है। कंकेली के पल्लव मुझे मृत्यु के समान भयंकर प्रतीत हो रहे हैं। ज्यादा क्या कहूं? उसके बिना मेरे सर्व श्रृंगार अंगार के समान लगते हैं। उसे प्राप्त करने के लिए मैंने कामदेवादि सैकड़ों देवों की उत्तम पुष्पादि सामग्री के द्वारा अच्छी तरह पूजा की, तो भी मन्द भाग्ययुक्त होने से मुझे उसका समागम नहीं मिल पाया। अब शरण रहित मेरे लिए मरण के सिवाय अन्य कोई शरण नहीं है।"
इस प्रकार के उसके वचन सुनकर कुमार ने विचार किया-"अहो! उस पुरुष का अद्भुत भाग्य जानना चाहिए कि जिसके विषय में आसक्त चित्तवाली यह कृशोदरी इस प्रकार दुःखी हो रही है।"
फिर उस सखी ने कन्या से कहा-“हे सखी! तूं शोक न कर। स्वस्थ बन । तेरा यह मनोरथ शीघ्र ही सफल होगा, क्योंकि तेरे पिता ने रत्नपुर में रत्नांगद राजा के उस रत्नसार कुमार को यहां लाने के लिए सुवेग विद्याधर को भेजा है। वह विद्याधर अभी ही यहां आया है और उसने राजा से कहा है कि मैंने हाथी का रूप धारण करके उस कुमार का अपहरण करके उसे उद्यान में लाकर छोड़ा है। यह वृत्तान्त सुनकर मुझे अत्यन्त आनन्द प्राप्त हुआ है। यही बताने के लिए मैं अभी यहां तुम्हारे पास आयी हूं। अतः अब तूं विषाद करना छोड़कर प्रसन्न बन।"
इस प्रकार उन दोनों स्त्रियों की उक्ति-प्रत्युक्ति सुनकर मन में प्रसन्न हुआ राजपुत्र पुनः अशोक वृक्ष के नीचे आकर विचार करने लगा-"मुझे लगता है कि इस कमलाक्षि के पाणिग्रहण के लिए ही उसके पिता ने मुझे यहां बुलवाया है। हे चित्त! तूं तो आनन्द से नृत्य