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163/श्री दान-प्रदीप
होने के कारण मेरे मन में पीड़ा उत्पन्न करती है। मेरी यह विशाल सम्पत्ति भी पुत्र के बिना अरण्य के उद्यान की लक्ष्मी की तरह निष्फल ही है। पुत्ररहित कुल समृद्धि के होने पर भी सैकड़ों शाखाओं से युक्त, पर फलरहित वृक्ष की तरह शोभित नहीं होता। चन्द्ररहित रात्रि, सूर्यरहित दिवस और सुकृत रहित मनुष्य जन्म जैसे शोभित नहीं होता, वैसे ही पुत्र के बिना कुल शोभित नहीं होता। मैं निश्चिन्त होकर धर्मध्यान करूंगा-मेरा चिरकाल का यह मनोरथ पुत्र के बिना अवकेशी वृक्ष की तरह निष्फल होगा। मेरे वंश रूपी आकाश में दुष्कर्म रूपी रात्रि का नाश करनेवाले देदीप्यमान सूर्य के समान पुत्र का उदय किस प्रकार होगा?"
इस प्रकार चिन्तातुर होने से श्रेष्ठी का मुख निस्तेज बन गया। फिर शय्या से उठाकर उसने स्नान-पूजादि प्रातःकाल का कृत्य किया। फिर आसन पर बैठे हुए श्रेष्ठी का चित्त अत्यन्त खेदयुक्त देखकर चतुर रतिसुन्दरी ने दुःखी होकर उससे पूछा-“हे नाथ! क्या आपका शरीर रोग के संगम से पीड़ा को प्राप्त हो रहा है? या फिर धन का नाश हो जाने से यह दीनता आपके मन में व्याप्त हो गयी है? या फिर क्या राजा ने आपका अपमान किया है, जिससे आपके मन में यह ग्लानि उत्पन्न हुई है? या फिर अज्ञानतावश क्या मैंने आपकी किसी आज्ञा का लोप किया है? अथवा तो अन्य कोई चिन्ता आपके मन में अत्यन्त संताप को उत्पन्न कर रही है? पहले कभी नहीं देखी-ऐसी मलिनता आपके चेहरे पर स्पष्ट रूप से नजर आ रही
हे स्वामी! शीघ्र ही आप अपनी चिन्ता का कारण मुझे बतायें और मेरे संदेह का निवारण करें। मेरे चित्त का समाधान करें।"
यह सुनकर श्रेष्ठी ने कहा-“हे देवी! पूर्व पुण्य के उदय से तुम्हारे द्वारा कथित कोई भी पीड़ा मेरे मन को खिन्न नहीं बना रही है, बल्कि अंदर रही हुई शल्य की तरह मेरी शून्यता को करनेवाली पुत्र की 'शून्यता मेरे चित्त को संताप दे रही है। कहा भी है कि पुत्र पिता की दरिद्रता को दूर नहीं कर सकता, व्याधि का नाश भी नहीं कर सकता, इस भव में एकान्त हितकारक भी नहीं बनता, एकान्त सद्गुणों से युक्त भी नहीं होता। प्राणी की परभव में गति अपने-अपने कर्म के अनुसार भिन्न-भिन्न ही होती है, अतः पुत्र सद्गति को भी प्राप्त नहीं करवाता। फिर भी मनुष्यों को पुत्र न होने की चिन्ता दुःख उत्पन्न करती है। अहो! मोह का कैसा विलास!" ।
यह सुनकर बुद्धिमान प्रिया ने अपने पति से कहा-“हे स्वामी! मेरे मन में भी इस विषयक चिन्ता कम नहीं है और लम्बे समय से है। पर पूर्व में स्वयंकृत कर्म ही प्राणियों को
1.खेद । 2. रहितता।