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85 / श्री दान- प्रदीप
प्रातःकाल नियमानुसार ब्राह्मण शय्या से उठकर हमेशा की तरह स्नानादि करके पूजा की सामग्री हाथ में लेकर यक्ष के मन्दिर में आया । यक्ष को एक नेत्रवाला देखकर वह दुःखी हुआ और बार-बार विलाप करने लगा। थोड़ी देर बाद अनन्य भक्तियुक्त वह भील भी वहां पर आया। वह भी यक्ष को एक नेत्रवाला देखकर दुःखी हुआ और खेद करने लगा। फिर कुछ समय बाद अत्यन्त भक्तियुक्त होकर उसने अपने बाण से अपना एक नेत्र निकाल लिया और यक्ष की मूर्ति की उस आँख की जगह लगा दिया । भक्तिमान पूरुष के लिए कौनसा कार्य मुश्किल है ?
उसके बाद “अरे ब्राह्मण! तुमने स्वयं की और उसकी भक्ति का अन्तर देखा ?"- ऐसा कहकर यक्ष ने भील के दोनों नेत्र ठीक कर दिये और कहा - " हे वत्स! इस निर्णीत तेरी भक्ति से मैं अत्यन्त प्रसन्न हुआ हूं, अतः मेरी कृपा से तुझे अक्षय लक्ष्मी की प्राप्ति होगी । "
फिर उस यक्ष की कृपा से भील ने उत्कृष्ट सम्पदा प्राप्त की और सुखी बना । सम्यग् प्रकार की भक्ति कैसे फलदायक नहीं होगी? अतः शास्त्रों का अभ्यास करनेवाले बुद्धिमान शिष्य को कपट रहित बहुमानपूर्वक विशेष रूप से गुरु का विनय करना चाहिए ।
उपधान - जिसके द्वारा श्रुत की सम्यग् आराधना से आत्मा के समीप जाया जाय, उसे उपधान अर्थात् विविध प्रकार की तपस्या कहा जाता है । गणधरों ने जिस शास्त्र के अध्ययन के लिए जिस तपस्या को करने के लिए कहा है, उस तपस्यापूर्वक ही उसका अध्ययन करना चाहिए, क्योंकि वैसा करने से ही ज्ञान सफल होता है । इसलोक-संबंधी मंत्र भी तप के बिना सफल नहीं होते, तो फिर परलोक को साधनेवाले जिनागम तप के बिना कैसे सिद्ध हो सकते हैं? तप करने से पूर्व के ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय होता है और उसका क्षय होने पर सुखपूर्वक अल्प प्रयास के द्वारा ही श्रुतज्ञान प्राप्त होता है । इस पर दृष्टान्त है
गंगा नदी के किनारे किसी ग्राम में पुण्यकर्म के प्रति आदरयुक्त दो भाई रहते थे । उन्होंने निर्मल हृदय से किसी विशाल गच्छ में दीक्षा ग्रहण की। वहां मुख्य मुनि शीघ्रता से उन दोनों को ग्रहण और आसेवन शिक्षा सिखाने लगे। सभी के लिए सीखना श्रेयस्कर है। बड़ा भाई निपुण बुद्धियुक्त होने से श्रुतज्ञान में पारंगामी हो गया, जिससे उसे आचार्य पदवी प्राप्त हुई । विद्या संपत्ति का स्थान है। छोटा भाई अल्पबुद्धियुक्त होने से अल्प शास्त्र ही सीख पाया। सरस्वती भी लक्ष्मी की तरह पूर्वकृत कर्मों के अनुसार अनुसरण करती है। फिर जैसे क्षयतिथि में याचकों को भोजन देनेवाला दाता कभी विश्रान्ति को प्राप्त नहीं होता, उसी तरह वह आचार्य भी शिष्यों को श्रुतज्ञान देने में कभी भी विश्रान्ति को प्राप्त नहीं होता था । शिष्यों द्वारा किये गये सूत्रार्थ के चिन्तन और प्रश्नादि के द्वारा वह रात्रि में भी सुखपूर्वक शयन नहीं