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108/श्री दान-प्रदीप
इस प्रकार उस योगी ने मानो सत्य वाणी के द्वारा कुमार को विश्वास दिलाया । अतः कुमार योगी के पीछे-पीछे चलने लगा। इस कारण से उसके मित्र भी उसके पीछे-पीछे चलने लगे। अनुक्रम से चलते-चलते वे विन्ध्याचल पर्वत के समीप रहे हुए कुडंगविजय नामक वन में पहुँचे। वह वन मानो यमराज का सहोदर हो, इस प्रकार के (चमुरु जाति के) मृग, चीते, बाघ, सिंह और अष्टापद मृगों आदि क्रूर जानवरों से युक्त भयंकर प्रतीत होता था। मानों यमराज की क्रीड़ास्थली हो, इस प्रकार से उसमें सूर्य के दर्शन भी नहीं होते थे। वहां उन्होंने परिव्राजक के द्वारा बताया गया यक्ष का मन्दिर भी देखा। फिर उन सभी ने पवित्र होकर चम्पकादि के पुष्पों के द्वारा हर्षपूर्वक उस यक्ष की पूजा की। उसके बाद योगी सायंकाल होने पर किसी गोकुल से चार बकरे लेकर आया। पूजादि की सर्व सामग्री तैयार की। फिर उस योगी ने बकरों सहित उन चारों को स्वयं स्नान करवाया। फिर यमराज के कटाक्ष के समान अशुभ चंदनादि के द्वारा उन सभी को भूषित किया। फिर योगी ने उन चारों से कहा-"तुमलोग एक-एक बकरे को मारो, जिससे बलि चढ़ाकर उस द्वार का उद्घाटन किया जाय ।"
__यह सुनकर शंख को छोड़कर शेष तीनों ने योगी के अभिप्राय को न जानते हुए अपनी आपत्ति का विचार किये बिना प्रतिकूल दैव से अनजान बनकर योगी के कथनानुसार किया। पर श्रेष्ठीपुत्र पुण्यशाली था। उसके मन में अपार करुणा का परिणाम पैदा होने के कारण उसने हिंसा के उस कार्य को नहीं किया। योगी ने फिर से उसे आज्ञा दी, पर उसने योगी के वचनों को मान्य नहीं किया। महापुरुष अन्यों के प्राणों को अपने ही प्राणों के समान मानते हैं। फिर बकरों के वध से प्राप्त छल के द्वारा उन तीनों को उस पापी योगी ने अपने मंत्र की सिद्धि के लिए मार डाला। अहो! कपट की कुशलता को धिक्कार है! फिर योगी ने उनके मस्तकों रूपी कमलों के द्वारा उस यक्ष की पूजा की। क्षुद्र देवता ऐसी पूजाओं से संतुष्ट होते हैं। उसके बाद यमराज के लघु भ्राता के समान उस योगी ने बिना किसी छल के उस शंख को भी मारने की कोशिश की। दुष्ट मनुष्यों के लिए कुछ भी अकार्य नहीं है। इस अवसर पर उस यक्ष ने प्रत्यक्ष होते हुए उस योगी से कहा-" हे अधम! हे पापिष्ठ! ऐसा दुष्ट कार्य क्यों करता है? बकरे के घात को नहीं करने के कारण छल को नहीं प्राप्त इस पुरुष का अगर तूं घात करेगा, तो तूं होते हुए भी नहीं होने के समान बन जायगा अर्थात् मरण को प्राप्त हो जायगा।"
__ यह सुनकर जैसे सिंहनाद को सुनकर भयभीत होते हुए बाघ मृग को छोड़ देता है, उसी प्रकार मन में भय को प्राप्त करते हुए उस योगी ने तुरन्त शंख को छोड़ दिया। उसके बाद अपने मित्रों के मरण से संतप्त शंख विलाप करने लगा-“हे मित्रों! गुणों के द्वारा