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122/श्री दान-प्रदीप
जगत के हितकारक मेघ गर्जना करने लगे। उस दुष्ट राजा का हनन करने के लिए मानो बार-बार स्फुरित होती हुई यमराज की कैंची हो, उस प्रकार से आकाश में बिजली चमकने लगी। उस समय आकाश में दो भूत आपस में बातें कर रहे थे और महल के गवाक्ष में बैठा राजा भयभीत होकर सुन रहा था। भूत ने अपनी प्रिया से कहा-“हे प्रिये! मैं कोई भावी वृत्तान्त बता रहा हूं। तूं सुन।"
तब प्रिया ने कहा-“हे स्वामी! शीघ्र बतायें । मैं सुनने के लिए उत्सुक हूं।"
तब भूत ने कहा-"निरपराधी जन्तुओं के समूह का घात करने से उत्पन्न हुए पापसमूह से भारी बना यह राजा स्वल्प काल में ही विनाश को प्राप्त होगा।"
यह सुनकर कौतुक उत्पन्न होने के कारण उसकी प्रिया बोली-"तो फिर इस नगरी का राजा कौन बनेगा?"
भूत ने कहा-"जो पुरुष इस राजा की आज्ञा का भंग करेगा, मदोन्मत्त हाथी को वश में करेगा और राजा की पुत्री को स्वीकार करेगा, वही इस नगर का स्वामी बनेगा।"
इस प्रकार की बातें करते हुए वह भूत-युगल अदृश्य हो गया ।वायु से उत्पन्न हुए सभी उपद्रव भी नष्ट हो गये। उसके बाद वह गर्विष्ठ राजा मन में भय प्राप्त होने से भ्रान्त बन गया। उसकी बुद्धि नष्ट हो गयी। अतः उसने नगर के आरक्षकों को तत्काल आज्ञा दी-"अपनी आत्मा को सुभट माननेवाला जो दुष्ट पुरुष मेरी आज्ञा का उल्लंघन करे, उसे निःशंक होकर तत्काल ही यमराज का चर बना देना अर्थात् मार डालना।"
एक बार रात्रि के समय अभयसिंह रामदेव के मन्दिर में नाटक देखने के लिए गया। मध्यरात्रि के समय वह अपने घर की और लौट रहा था। उसे देखकर आरक्षक ने कोमल वाणी के द्वारा उससे कहा-“हे भद्र! जरा ठहरो। तुम कौन हो? मेरे प्रश्नों का जवाब देकर आगे जाना।"
इस प्रकार आरक्षक के द्वारा पूछे जाने पर भी कुमार रुका नहीं, बल्कि नदी के पूर की तरह आगे चलता रहा। तब उसने कोपयुक्त वाणी में राजा की आज्ञा बतायी। तब अभय ने कहा-"वह आज्ञा तूं अपने बाप को देना।"
इस प्रकार निर्भयतायुक्त कथन करके धैर्यवान अभयसिंह आगे चलने लगा। यह सुनकर आरक्षक को अत्यन्त क्रोध आया। उसने सैनिकों को पुकारा और कहा-"हे योद्धाओं! इसे पकड़कर बांधो और मारो।"
ऐसा कहकर क्रोध से स्वयं भी उसकी और दौड़ा। उसे देखकर वीरसेन राजा का निर्भय पुत्र अभयसिंह विद्या के द्वारा अदृश्य होकर सकुशल अपने घर पहुँच गया। सत्पुरुष