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134/श्री दान-प्रदीप
का व्यय करता था। महापुरुषों की श्रेणि में अग्रसर रामचन्द्र महाराज की कौन स्तुति न करे, जिन्होंने अरण्य में रहकर भी साधर्मिकों का उद्धार किया था। उनका वृत्तान्त इस प्रकार है
कुछ समय पूर्व दशपुर नगर में वज्रकर्ण नामक राजा था। एक बार वह शिकार खेलने के लिए वन में गया। वहां किसी जैन मुनि को देखकर उन्होंने वंदन किया। मुनि ने धर्मलाभ देकर धर्मोपदेश दिया। सुनकर उसने श्रद्धापूर्वक श्राद्धव्रत अंगीकार किया। 'सुदेव व सुगुरु के सिवाय अन्य किसी को मैं नमन नहीं करूंगा'-ऐस अभिग्रह भी स्वीकार किया।
वह वज्रकर्ण राजा पहले से ही अवन्ती नगरी के राजा सिंहोदर का सेवक था। अतः उसने मुद्रिका रत्न में जिनेश्वर की सूक्ष्म प्रतिमा भरवाकर अपने दाहिने हाथ के अंगुष्ठ में धारण की। सिंहोदर राजा को प्रणाम करते समय वह मात्र अंगुष्ठ में रही हुई उस प्रतिमा को ही नमस्कार करता था। पर दूसरों को लगता था कि वह राजा को ही प्रणाम कर रहा है। इस बात का किसी दुष्ट को पता चल गया। उसने वज्रकर्ण का प्रपंच राजा को बता दिया। जैसे सर्प के लिए कुछ भी न डसने लायक नहीं होता, वैसे ही दुष्ट के लिए कुछ भी न कहने लायक नहीं होता। प्रपंच जानकर राजा मन ही मन वज्रकर्ण पर द्वेषभाव रखने लगा। रात्रि में भी उसी चिंता में विचार करते हुए अंतःपुर में गया। चतुर रानी ने राजा से चिंता का कारण पूछा। राजा ने वज्रकर्ण की बात बतायी। कामी पुरुष स्त्री से कोई बात गुप्त नहीं रख सकते। उस समय कोई श्रावक किसी कारण से दुष्ट बुद्धि के उत्पन्न हो जाने से वहां महल में चोरी करने के लिए आया हुआ था। उसने राजा-रानी की बात सुनकर विचार किया-"हा! हा! यह दुष्टात्मा मेरे साधर्मिक बंधु श्री वजकर्ण को प्रातःकाल होने पर बंधनादि की विडम्बना करेंगे। अतः मैं अभी जाकर उसे हकीकत कहूं, जिससे वह आज ही रात्रि में निर्विघ्न रूप से अपने नगर को चला जाय।" __ ऐसा विचार करके उसने चोरी के विचार को छोड़ा और उसी समय जाकर उसे सारी स्थिति से अवगत करवाया। धर्मी पुरुषों के लिए साधर्मिक मनुष्य बंधु व धन से भी ज्यादा महत्त्व रखता है। यह सुनकर वज्रकर्ण राजा ने उसे अत्यधिक धनादि देकर उसका सम्मान किया। उसके गुणों से अपने हृदय में आनंद का अनुभव करते हुए वह उसी रात्रि में अपने नगर की और प्रयाण कर गया। अनुक्रम से क्षेम-कुशलता से वह अपने नगर में पहुँच गया। उसने नगर द्वार बंद करवाकर किले के अन्दर सम्पूर्ण प्रजाजनों के लिए अन्न, जल, ईंधनादि सामग्री इकट्ठी करवाली।
यह जानकर सिंहोदर राजा ने अत्यन्त क्रुद्ध होकर सेना सहित निरन्तर प्रयाण करते हुए दशपुर नगर को चारों तरफ से घेर लिया। उस समय एकमात्र परोपकार व्रत को धारण करनेवाले वनवास को प्राप्त रामचन्द्रजी, लक्ष्मण व सीता को जब साधर्मिक वजकर्ण पर