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133/श्री दान-प्रदीप
समूह द्वारा उस जयराजा ने समग्र घातिकर्म रूपी पापमल के धुल जाने से केवलज्ञान को प्राप्त किया। तत्काल देवताओं द्वारा प्रदत्त साधुवेश को भरत चक्रवर्ती की तरह धारण किया। फिर भव्य प्राणियों को प्रतिबोध देकर अनुक्रम से मोक्ष लक्ष्मी को प्राप्त किया।
इस प्रकार अभयदानमय दृष्टान्तों के द्वारा आश्चर्य उत्पन्न करनेवाले और कर्णों को सुख उपजानेवाले इस जयराजा का चरित्र श्रवण करके हे भव्यों! निरन्तर अभयदान देने का प्रयत्न करना चाहिए, जिससे विघ्नरहितता से मोक्षपद को शीघ्र ही प्राप्त किया जा सके।
।। इति तृतीय प्रकाश।।
* चतुर्थ प्रकाश 0
पात्रदान का माहात्म्य
श्रीऋषभदेव के पौत्र श्रेयांसकुमार सभी के कल्याणस्वरूप हों, कि जिन्होंने पात्रदान की व्यवस्था का सबसे पहले विस्तार किया।
अब इस चौथे प्रकाश में धर्मोपष्टंभ दान का स्वरूप कहा जाता है, जिसे देने से स्व और पर को धर्म का 'उपष्टम्भ होता है। इसमें जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के रूप में तीन प्रकार के पात्र होते हैं। जो केवल सम्यक्त्वधारी होते हैं, उन्हें जघन्य, देशविरतिवालों को मध्यम और सर्वविरति से युक्त व्यक्तियों को उत्कृष्ट पात्र कहा जाता है। समकितादि गुणों से युक्त श्रावक भी स्पष्ट रूप से पूजनीय होते हैं, क्योंकि वे साधर्मिक होने से वे ही सत्पुरुषों के वास्तविक बंधु होते हैं। उस साधर्मिक पर अंतःकरण से प्रेम धारण करके अन्न-वस्त्रादि के द्वारा अच्छी तरह से बंधु की तरह उनकी भक्ति करनी चाहिए। शास्त्रों में सुना जाता है-भरत चक्रवर्ती अमृत रस के पाक के समान उत्तम आहार द्वारा साधर्मिक बंधुओं की भक्ति करते थे। उसी के वंश में उत्पन्न हुए दण्डवीर्य राजा की कौन प्रशंसा नहीं करता, जो प्रतिदिन एक करोड़ आस्तिकों को भोजन करवाने के बाद स्वयं भोजन करता था? बुद्धिमान पुरुषों को दुःखित साधर्मिकों का बंधु के समान उद्धार करना चाहिए, क्योंकि साधर्मिकों का उद्धार करने से स्व-पर की आत्मा का उद्धार होता है-ऐसा मानना चाहिए। उत्तम बुद्धियुक्त कुमारपाल राजा निरन्तर स्तुति करने योग्य है, क्योंकि वह आस्तिकों का उद्धार करने में प्रतिवर्ष एक कोटि द्रव्य 1. उपकार-अवलम्बन।