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142/श्री दान-प्रदीप
छठे ने कहा-"मैं ज्योतिषी की कुशलता के द्वारा जीता हूं।" योगी ने कहा-"अद्भुत चूर्ण के प्रयोग से मैं जीता हूं।" मान्त्रिक ने कहा-"मैं मंत्र-तंत्र से जीता हूं।" राजा ने पूछा-"कैसे?"
तब वैद्य, जोशी, योगी और मान्त्रिक ने कहा-"हमलोग अनुक्रम से वैद्यक, ज्योतिष, चूर्ण और मंत्र-तंत्रादि के प्रयोग द्वारा अपनी आजीविका चलाते हैं।"
अन्त में जिनागम से जिनका अंतःकरण सुवासित था, ऐसे एक क्षुल्लक साधु ने कहा-“मैं मुधाजीवी हूं।"
राजा ने उससे पूछा-"कैसे?"
तब उसने उत्तर दिया-"जन्म, जरा, व्याधि, प्रिय वस्तु का वियोगादि असंख्य दुःखों से युक्त यह संसार अत्यन्त भयंकर है-यह जानकर मैंने आनन्दपूर्वक संयम ग्रहण किया है। अतः मैं समग्र लोकयात्रा से रहित हूं और संयम के निर्वाह के लिए अदीन वृत्ति से जिस काल में जो भी अशनादि मुझे प्राप्त होता है, उसे मैं ग्रहण करता हूं। अतः हे राजन्! मैं मुधाजीवी हूं।"
उसके इन वचनों को सुनकर राजा ने निश्चय किया कि-"समग्र दुःखों के क्षय की सिद्धि का साधन रूपी यह धर्म ही मुक्ति प्राप्त करने के लिए तत्त्वज्ञ पुरुषों द्वारा सेवन के योग्य है।"
ऐसा विचार करके राजा ने सद्गुरु के पास जाकर सर्व तत्त्वों का निर्णय करके अपने पुत्र को राज्य पर स्थापित करके चारित्र अंगीकार किया और अनुक्रम से सद्गति को प्राप्त हुआ।
इस प्रकार हे साधुओं! मुधा-आजीविका के द्वारा ही अपनी देह का निर्वाह करने के लिए तुम्हे प्रयत्न करना चाहिए, जिससे तुम्हारी तपक्रिया, ज्ञान, चारित्र और शुद्धि (सम्यग्दर्शन)तुम्हारे इच्छित मोक्ष रूपी फल का प्रदाता बने।"
अब पात्रदान के आठ प्रकारों का अनुक्रमपूर्वक वर्णन किया जाता है। वे आठ भेद श्रुत में इस प्रकार से कहे गये हैं-वसति, शयन, आसन, भक्त, पानी, औषधि, वस्त्र और पात्र । देने योग्य वस्तु आठ प्रकार की होने से पण्डित-पुरुषों ने दान आठ प्रकार का बताया है। इस विषय में उपदेशमाला में कहा है:
"वसही सयणासण भत्तपाण भेसज्ज वत्थपत्ताई" 1. वसति, 2. शयन, 3. आसन, 4. भक्त, 5. पान, 6. औषध, 7. वस्त्र और 8. पात्र । इन आठ प्रकार के दान में सबसे पहले शय्यादान बताया गया है, जो योग्य ही है, क्योंकि