________________
113/श्री दान-प्रदीप
इस रानी ने अत्यन्त अल्प रूप में तेरा स्वागत-सत्कारादि किया, फिर भी मानो तुझे राज्य मिल गया हो, इस प्रकार से तूं प्रसन्न दिखायी दे रहा है। मुझे अत्यन्त आश्चर्य हो रहा है। तूं इसका कारण मुझे बता।"
यह सुनकर वसंत चोर ने शीलवती द्वारा दिये गये आश्वासन से प्राप्त धैर्यपूर्वक कहा-"हे स्वामी! आपने मुझे शूली पर चढ़ाने के जो वचन कहे थे, वे यमराज के संदेश की तरह मेरे कर्णों में कंटकों के समान वेदना उत्पन्न कर रहे थे। इससे मेरा मन भयभीत बना हुआ रहता था। उत्तम भोजन भी मुझे गाय के गोबर के समान प्रतीत होता था। स्वादिष्ट जल मुझे नीम के रस के समान कटुक प्रतीत होता था। उत्तम अश्व मुझे गधे के समान प्रतीत होता था। क्रीड़ाघर श्मशान के समान प्रतीत होता था। पुष्पमाला सर्प के समान प्रतीत होती थी। सुगन्धित चन्दन का लेप विष्ठा के लेप के समान प्रतीत होता था। पलंग पर कांटों की चुभन होती थी। मयूरपिच्छ का छत्र सूपड़े के समान प्रतीत होता था। स्वर्णाभूषण बेड़ियों के भार की तरह प्रतीत होते थे। सुन्दर वस्त्र यमराज के वस्त्रों की तरह प्रतीत होते थे। सुन्दर गीत रुदन जैसा प्रतीत होता था। वाद्यन्त्र के शब्द वज्र के प्रहार के समान प्रतीत होते थे। मनोहर स्त्रियाँ डाकिनियों के समान प्रतीत होती थीं। सिपाही यमराज के दूत के समान प्रतीत होते थे।
हे स्वामी! अधिक क्या कहूं? सामने रही हुई मृत्यु को देखकर मेरा मन आकुल-व्याकुल रहता था। एकमात्र शूली का ध्यान ही मनोमस्तिष्क में रहने से मुझे सारा जगत शूलीमय प्रतीत होता था। पर आज तो मानो त्रिभुवन को पवित्र करनेवाली गंगा ही धरा पर उतर आयी हो, इस प्रकार माता के सदृश इस शीलवती रानी ने मुझे अभयदान प्रदान किया है। अतः आज मेरा मन स्वस्थ बन चुका है। मेरे मन में अत्यन्त आनंद व्याप्त हो गया है। मुझे पुनर्जन्म मिल गया है। अतः मैं सारे जगत को सुन्दरतायुक्त देख रहा हूं। अतः इनका थोड़ासा भी उपचार मुझे अलौकिक दैवीय सुखों के तुल्य लग रहा है, क्योंकि जीवनदान देनेवाला एक तृण भी चिन्तामणि रत्न के तुल्य ही है। मेरुपर्वत और सरसों के दाने में जितना भेद है, स्वर्ण और पीतल में जितना अन्तर है, उतना ही अन्तर अन्य रानियों के उपकार व शीलवती रानी के उपकार में है।"
यह सुनकर राजा ने अत्यन्त हर्षित होते हुए शीलवती के मुखकमल की और निहारा। तब शीलवती रानी ने कहा-“हे स्वामी! आप अपने मुखकमल से इसे अभयदान प्रदान करें-यह मेरी विज्ञप्ति है।"
राजा ने कहा-"अभयदान तो मैंने दे ही दिया है। पर तुम भी कुछ भी मन-इच्छित माँगो।"