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114/श्री दान-प्रदीप
रानी ने कहा-"आपकी कृपा से मुझे कुछ भी कमी नहीं है। अतः और क्या माँगू?"
यह सुनकर राजा ने विचार किया-"अहो! इसकी गंभीरता! अहो! इसका धैर्य! अहो! इसकी दया! अहो! इसका पवित्र शीलव्रत! अहो! इसकी सत्यता! अहो! इसका निष्पृह चित्त! अहो! इसके सभी गुण आश्चर्यकारक है!"
इस प्रकार उसके गुणों से आकर्षित होते हुए राजा ने प्रसन्न होकर उसे पट्टरानी के पद पर स्थापित किया। दयाधर्म के प्रभाव से रानी की सद्गति हुई। वसंत भी शीलवती के पुत्र के रूप में प्रसिद्ध हुआ। राजा की भी उस पर पूर्ण कृपा रही। वह भी दयाधर्म का पालन करके अनुक्रम से स्वर्ग में गया।
अतः हे भद्र! अभयदान के सिवाय अन्य कुछ भी कल्याणकारक नहीं है। तुमने भी इसका प्रत्यक्ष फल देखा है। अतः दयाधर्म में ही सम्यग् प्रकार से उद्यम करना चाहिए।"
सुमेघ के इस प्रकार कहने पर व दृष्टान्त सुनकर शंख हर्षित हुआ। उसके हृदय में संवेग रस का प्रसार हुआ। उसने जीवदया के धर्म को अंगीकार किया। योग्य क्षेत्र में वृष्टि की तरह सत्पात्र में दी गयी धर्मदेशना निष्फल नहीं जाती।
फिर एक बार सुमेघ ने शंख को कल्याण का विस्तार करनेवाला पंच परमेष्ठि का नमस्कार मंत्र सिखाया। फिर उसे उपदेश देते हुए कहा-“हे दक्ष! यह नवकार मंत्र सर्व आपत्तियों का नाश करनेवाला है और सर्व संपत्तियों को प्राप्त करानेवाला है। जिस प्राणी के कण्ठों में यह नवकार मंत्र रहा हुआ है, उसे भूत-प्रेत भयभीत नहीं कर सकते, व्यन्तर उसे विघ्न में नहीं डाल सकते, यक्ष उसकी रक्षा करते हैं, विविध व्याधियाँ उसे बाधित नहीं करती हैं, अग्नि-जल-विषादि से उत्पन्न भयंकर उपसर्ग उसका कुछ भी अपकार नहीं कर सकते। अतः इस मंत्र को श्रेष्ठ हार की तरह निरन्तर गले में धारण करना चाहिए। ऐसा करने से तूं समग्र सुख-लक्ष्मी का भाजन बनेगा।"
यह सुनकर शंख ने उसके उपदेश को अत्यन्त हर्षपूर्वक अंगीकार किया। कौनसा सुज्ञ सचेतन प्राणी दूसरों द्वारा किये गये हितोपदेश को स्वीकार नहीं करता? इस प्रकार पुण्यमय आलाप-संलाप के द्वारा उनका दीर्घ मार्ग भी सुखपूर्वक उल्लंघन करने लायक बन गया। कुछ दिनों बाद अपने गंतव्य का मार्ग अलग दिशा में होने से बंधु की तरह इष्ट शंख की अनुमति लेकर सुमेघ श्रावक आनन्दपूर्वक अपने पापों का नाश करने के लिए इच्छित स्थान की और चला। शंख भी निरन्तर नमस्कार मंत्र का स्मरण करते हुए किसी सार्थ के साथ स्वस्थ होते हुए अपने नगर की और चला। मार्ग में जाते हुए किसी अटवी में धनुषदण्ड पर बाण चढ़ाकर यमराज के किंकरों की तरह कितने ही भील वहां आये और 'पकड़ो-पकड़ो' कहकर