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119/श्री दान-प्रदीप
लोचनों से युक्त वह रानी वन में इधर-उधर घूमने लगी। तभी हरिणी को शिकारी की तरह उसे भी किसी सैनिक ने देख लिया। सैनिक ने उसे देखते ही मन में विचार किया कि-"मेरा पुण्य अगण्य है, क्योंकि आज रूप-सौंदर्य से अप्सरा को भी मात देनेवाली प्रिया मुझे प्राप्त हुई है। अतः सबसे पहले मेरे स्नेह में बाधक बननेवाले सर्प के समान इस बालक का त्याग करवाऊँ, तो यह मुझ पर अत्यन्त प्रीति धारण करेगी।" ।
__ ऐसा विचार करके सैनिक ने रानी से कहा-"इस भार रूप बालक का तूं परित्याग कर।"
कामी पुरुष कार्य-अकार्य के विचार में निपुण नहीं होते।
रानी ने कहा-"मेरे प्राणों से भी प्रिय और सौंदर्यता में कामदेव को भी परास्त करनेवाले इस नवजात शिशु का बिना कारण मैं कैसे त्याग करूं?" ___तब उसने कहा-"मैं तुम्हारा प्राणप्रिय बनूंगा, जिससे चित्त को आनंद उत्पन्न करनेवाले ऐसे अनेक पुत्र तुम्हें पैदा होंगे।" ____ यह सुनकर रानी ने कहा-"अब मुझे दूसरे पुत्र तो परभव में ही होंगे-यह तुम भी जान लो।"
ऐसा कहकर वह रुदन करने लगी। अबलाओं के पास एकमात्र आँसुओं का ही बल होता है। तब उस पापी ने जबरन उसका पुत्र उसके हाथ से छीन लिया और अटवी में ही छोड़ दिया। फिर उसका हाथ पकड़कर आगे चलने लगा। फिर अपनी इच्छा पूर्ण होती मानकर वह बोला-"तूं रुदन मत कर और न ही खेद कर । मुझे पति के रूप में स्वीकार कर। वनपुष्प की तरह इस युवावस्था को व्यर्थ न गँवा ।"
__इस प्रकार कर्ण में 'करवत के समान उसके वचनों को सुनकर अत्यन्त दुःखात होते हुए उसके लोचन अश्रुओं से भर गये। वह दैव को उपालम्भ देने लगी-"हा दैव! मैंने अपनी दुष्ट बुद्धि के द्वारा पूर्वजन्म में क्या अकार्य किया होगा, जिससे कि तूं निर्दयतापूर्वक दुःख पर दुःख दिये जा रहा है? सबसे पहले तो मैं जिन्हें प्राणों से भी प्रिय थी, ऐसे प्रशस्त गुणों के सागर रूप मेरे प्राणनाथ को मृत्यु के मुख में पहुंचा दिया। फिर सर्व सुखों के साधन रूप राज्य भ्रष्टता प्राप्त हुई। उसके बाद मुझे ज्ञातिजनों के साथ एक ही समय में वियोग प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् शरण-रहित होकर मुझे अकेले इस शून्य वन में परिभ्रमण करना पड़ा और अब इस पापी पिशाच के हाथों में पड़ी। अब इससे ज्यादा और क्या दुःख मिलनेवाला है कि यमराज के मुख के समान इस भयंकर वन में मेरा पुत्र अकेला छूट गया है?
1. तलवार।