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110/श्री दान-प्रदीप
कल्पवृक्ष फलीभूत हुआ है, क्योंकि ऐसे भयंकर कष्ट से भी तुम बिना किसी प्रयत्न के मुक्त हो गये हो। सर्व दानों में जीवनदान को ही पण्डित पुरुषों ने प्रधान बताया है, क्योंकि जीवन हो, तभी सर्व सुन्दर लगता है। प्राणियों के प्राणान्त के समय जीवनदान जैसा सुख देता है, वैसा षट्रसयुक्त भोजन भी नहीं दे सकता। इसी प्रकार मनोहर संगीत, विकस्वर नेत्रोंवाली स्त्रियों का हास्य, स्वर्णाभूषण, मनोहर शय्या, उष्ण जल से स्नान, सुन्दर वस्त्र, शरीर पर सुगन्धित द्रव्यों का लेप तथा विशाल साम्राज्य भी सुख नहीं दे सकता। इस विषय पर विचक्षण पुरुष चोर का दृष्टान्त देते हैं।"
शंख ने पूछा-"वह चोर का दृष्टान्त क्या है?"
तब सुमेघ कहने लगा-"श्रीवसंतपुर नामक नगर में जितशत्रु नामक राजा राज्य करता था। उसके प्रियंकरा नामक रानी थी, जो पाँचसौ रानियों में मुख्य थी। एक बार राजा अपनी प्रिया के साथ महल के गवाक्ष में बैठा था। उसी समय आरक्षकों ने किसी ग्राम से एक चोर को माल-सहित पकड़कर राजा के समक्ष उपस्थित किया। राजा ने उसके चोरी के कार्य के कारण क्रूरतापूर्ण तथा उसके सुन्दर रूप के कारण प्रसन्नतापूर्ण दृष्टि के द्वारा निहारते हुए उससे हास्यपूर्वक कहा-"तुम कौन हो? सभी पुरुषार्थों को साधने में समर्थ तथा पवित्र लावण्यतायुक्त ऐसी यौवनवय में ऐसा निन्दित कार्य क्यों करते हो?"
राजा की वाणी को सुनकर चोर के मन में कुछ विश्वास जागृत हुआ। उसने गद्गद् स्वर में कहा-“हे देव! विंध्यपुर नामक नगर में विंध्य नामक राजा राज्य करता है। उस नगर में प्रीति से शोभित वसुदत्त नामक श्रेष्ठी है। मैं उसी श्रेष्ठी का वसंतक नामक पुत्र हूं। माता-पिता के लालन-पालन द्वारा मैं वृद्धि को प्राप्त हुआ। मेरे पिता ने मेरा विवाह किया और मैं सुखपूर्वक रहने लगा। पर मेरे दुर्दैव के कारण मेरे सर्व गुणों रूपी लक्ष्मी को नष्ट करने का द्वार रूप द्यूत का व्यसन मुझे लग गया। स्वजनों द्वारा निषेध किये जाने पर भी, आपत्ति समीप आनेवाली हो, तो मरण के सन्मुख हुआ इन्सान जैसे अपथ्य का त्याग नहीं करता, उसी प्रकार मैंने द्यूतक्रीड़ा नहीं छोड़ी। मैं पिता की नजरों से छिपकर सारा धन धीरे-धीरे घर से बाहर ले जाने लगा, मानो स्वयं के घर से निकलने की तैयारी कर रहा होऊँ। यह सब जानकर पिता ने अत्यन्त क्रोधित होते हुए राजा को मेरी हकीकत बताकर मुझे दुष्ट सेवक की तरह अपने घर से बाहर निकाल दिया। अतः स्वेच्छा से घूमते हुए मैं यहां आया हूं। यहां के लोगों को भोग-विलास में सुखी देखकर मुझे भी भोग की अत्यन्त इच्छा हुई। पर धन के बिना तो वह इच्छा पूर्ण नहीं हो सकती थी। अतः अन्य कोई उपाय न होने के कारण मैं चोरी के कार्य में प्रवृत्त हो गया और तभी इन आरक्षकों ने मुझे पकड़ लिया। हे स्वामी! मैंने अपनी सारी बातें आपको सत्य ही कही है। अब आप अपनी इच्छानुसार