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105/श्री दान-प्रदीप
श्रावक और उसके तीन मित्रों की कथा है, जो इस प्रकार है
लक्ष्मी से भरपूर और इस जम्बूद्वीप के तिलक रूप भरतक्षेत्र में विजयवर्धन नामक नगर मुक्ताफल की शोभा को धारण करता था। उस नगर में रहनेवाली स्त्रियों व लक्ष्मी ने चंचलता का त्याग किया था, जिससे आधारहीन बनी चंचलता ने चैत्यों के शिखरों पर रही हुई ध्वजाओं का आश्रय ले लिया था। उस नगर में अत्यन्त भुजबल से युक्त जयसुन्दर नामक राजा राज्य करता था। उसने शत्रुओं को दास बनाकर चारों तरफ विजयलक्ष्मी का वरण किया था। उस राजा के चार श्रेष्ठ प्रधान थे। वे राजा की कीर्ति रूपी लता की क्यारी के समान शोभित होते थे। उस राजा के विजयवती नामक सद्गुणयुक्त सती पत्नी थी। उसने अपनी कांति के द्वारा अप्सराओं को जीतकर अपना नाम सार्थक कर लिया था। उसके अतुल पराक्रमी भुवनचन्द्र नामक पुत्र था। उसने युवावस्था प्राप्त होने के पूर्व ही युवराज पद को प्राप्त कर लिया था। उस कुमार के बाल्यावस्था से ही सेनापति का पुत्र सोम, श्रेष्ठीपुत्र शंख और पुरोहित का पुत्र अर्जुन-ये तीन मित्र थे। युवावस्था से उन्मत्त बना कुमार क्रीड़ा-उद्यान में मित्रों के साथ हस्ती-शिशुओं के संग हस्ती-बालक की तरह इच्छानुसार क्रीड़ा किया करता था। वसन्त ऋतु के संबंध से लता की तरह उनकी प्रीति निरन्तर एक साथ आहार-विहार आदि संबंधों से अत्यन्त विकसित हुई। उन चारों के मध्य बाह्य वृत्ति से राजकुमार की मुख्यता प्रतीत होती थी। पर आन्तरिक रूप से तत्त्व की दृष्टि से दाक्षिण्य व सबुद्धि आदि गुणों के कारण शंख की मुख्यता थी। शंख वय में लघु था, पर उसकी कीर्ति लोक में विशेष थी, क्योंकि बाह्य विधि की अपेक्षा अंतरंग विधि बलवान होती है।
एक बार नगर के उद्यान में विनोद की विद्या प्राप्त करने की इच्छा से कोई ज्ञानकरंडक नामक परिव्राजक आया। उस उद्यान में मित्रों सहित क्रीड़ा करने के लिए पहले से आये हुए कुमार ने उस परिव्राजक को भक्तिपूर्वक प्रणाम किया। परिव्राजक ने उसे आशीर्वाद देते हुए कहा-“हे राजपुत्र! तूं पाताल-कन्याओं को स्वामी बनेगा।"
यह सुनकर हर्षित राजपुत्र उसके पास बैठा और कहा-“हे पूज्य! इस मृत्युलोक में पाताल-कन्याएँ कैसे संभव हैं? उनकी प्राप्ति किस प्रकार होगी? आप कृपा करके मुझे बतायें।"
तब योगी ने कहा-" विंध्याचल पर्वत की तलेटी में क्रीड़ा का स्थानभूत कुण्डगविजय नामक वन है। उसके भीतर सुवेल नामक यक्ष का मन्दिर है। उसके पास की दक्षिण दिशा की तरफ कमल के आकारवाली एक शिला है। उस शिला को वहां से हटाने पर उसके नीचे केयुर नामक गुफा है। उस गुफा में एक कोश आगे जाने पर पाताल-कन्याओं की निवास भूमि आती है। वहां अपने नयनों की शोभा के द्वारा त्रस्त मृगी के नयनों की शोभा को