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101/श्री दान-प्रदीप
निकाल दिया गया। कान्तियुक्त रोहगुप्त की राजा व लोगों ने अत्यधिक व बार-बार स्तुति
की। गर्वित होते हुए रोहगुप्त ने गुरु के पास जाकर वन्दन-नमस्कार किया और सर्व वृत्तान्त निवेदन किया। तब गुरुदेव ने फरमाया-"तुमने आगम के विपरीत प्ररूपणा की है। पण्डित पुरुषों का आगम के विरुद्ध बोलना युक्तियुक्त नहीं है, तो राजसभा में सभी के समक्ष आगम विरुद्ध स्थापना करना कैसे युक्तियुक्त हो सकता है? अतः हे वत्स! शीघ्रता से राजसभा में जाकर अपनी बात का मिथ्या दुष्कृत देकर आ । अन्यथा अपार दुर्गति में तेरा पतन होगा।"
तब रोहगुप्त ने कहा-"मिथ्यादुष्कृत करने में मुझे अत्यन्त पीड़ाकारी लज्जा होगी। जिस बात का मैंने युक्तियों के साथ राजसभा में स्थापन कर दिया, वह मिथ्या कैसे हो सकती है?"
गुरुदेव ने उसे बार-बार समझाया, पर उसने गुरु-वचनों को अंगीकार नहीं किया। जिसकी बुद्धि गर्वान्ध हो गयी हो, वह सही बात को कैसे स्वीकार कर सकता है? तब गुरुदेव ने राजसभा में जाकर स्पष्ट रूप से कहा-"मेरे शिष्य ने अभिमानवश आगम–विरुद्ध प्रतिपादन किया है, क्योंकि जिनेश्वरों के शासन में जीव और अजीव-ये दो ही राशियाँ हैं। आकाश कुसुम की तरह तीसरी राशि का कोई अस्तित्व नहीं है।"
तब रोहगुप्त ने अपनी लघुता होती देखकर गुरुदेव पर द्रोहभाव धारण करके राजा की साक्षी में गुरुदेव के साथ वाद का प्रारम्भ किया। राजा के सामने छ: माह तक गुरु-शिष्य का वाद चलता रहा। वितण्डावाद का कदाग्रह कैसे छोड़ा जा सकता है? राजकार्य में विघ्न आने से राजा भी उस वाद से खिन्न होने लगा। तब वाद का अन्त लाने के लिए राजा, गुरु व शिष्य-तीनों कुत्रिका की दूकान में गये। वह दूकान देवकृत होती है। अतः दैवीय प्रभाव के कारण तीन ही लोक में पाये जानेवाले सभी पदार्थ उस दूकान में विद्यमान होते हैं-ऐसा शास्त्रों में प्रसिद्ध है। वहां गुरुदेव ने जीव की याचना की, तब देव ने अदृश्य रूप में रहते हुए कुकुरादि जीव प्रदान किये । अजीव मांगने पर मिट्टी का ढेलादि दिया। नो जीव और नो अजीव की याचना करने पर उन्हीं दोनों पदार्थों को विपरीत रूप में प्रदान किया अर्थात् नो जीव मांगने पर मिट्टी का ढेला और नो अजीव मांगने पर कुकुर प्रदान किया। नौ द्रव्य, सतरह गुण, पाँच कर्म, तीन समवाय, एक सामान्य और एक विशेष-ये छत्तीस पदार्थ अन्यधर्मियों द्वारा कल्पित हैं। इन्हीं में से प्रत्येक के चार-चार भेद करके 144 भेद होते हैं। उतने यानि 144 प्रश्न करके वे-वे वस्तुएँ मांगी। तब देवता ने उन्हीं दो पदार्थों को अलग-अलग रूप में हाजिर किया। इनके सिवाय अन्य कोई पदार्थ है ही नहीं-यह कहकर देव ने उस कुशिष्य का तिरस्कार किया। तब गुरुदेव ने भी श्लेष्म डालने की राख की कुण्डी उसके मस्तक पर फोड़ी। अविनीत शिष्य शांत गुरु को भी उग्र-क्रोधी बना देते हैं।