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100/श्री दान-प्रदीप
कहा-“हे पण्डित! तूं अपनी इच्छानुसार पूर्वपक्ष को अंगीकार कर। मैं इस सभा के समक्ष प्रतिज्ञा करता हूं कि यह वादी जो कुछ भी कहेगा, उसे मैं अन्यथा प्रकार से स्थापित करुंगा।"
इस प्रकार आक्षेप करने पर वह वादी तत्काल शंकाग्रस्त हो गया। जिसे शास्त्रों का सम्यग् प्रकार से समुचित ज्ञान न हो, उसे सर्वत्र शंका ही बनी रहती है।
"जैन मत के वादियों में निर्दोष प्रमाण की निपुणता कही जाती है। अतः यह साधु भी अगर अपने मत में रहेगा, तो मैं इसे जीत नहीं पाऊंगा। अतः मैं जैनमत के पक्ष में ही पूर्वपक्ष करूं, जिससे यह अपने ही मत का खण्डन न कर सकने के कारण पराजित हो जायगा"-ऐसा विचार करके उसने जैनमत के पक्ष में कहा-"इस जगत में जीव और अजीव-ये दो ही राशियाँ हैं, क्योंकि इनके सिवाय कोई तीसरा पदार्थ उपलब्ध नहीं है।"
यह सुनकर गर्विष्ठ बने रोहगुप्त ने कहा-“हे मातृशासित! अरिहन्त के मत को तूं अच्छी तरह से नहीं जानता है, क्योंकि हमारे मत में जीव, अजीव और नो-जीव-ये तीन राशियाँ हैं। जो चेतनायुक्त है, वह जीव है। उसके विपरीत जो अचेतन है, वह अजीव है। धनुष से छोड़े हुए बाणादि सत्क्रिया करने से नोजीव है, क्योंकि उनमें चेतना न होने से उन्हें जीव नहीं कहा जा सकता और गमनादि क्रिया से युक्त होने के कारण उन्हें अजीव भी नहीं कहा जा सकता। अतः परिशेषता के कारण दो राशियों में से किसी में भी समावेश न हो सकने के कारण वे नोजीव की राशि में माने जाते हैं। स्वर्ग, मृत्यु और पाताल-ये तीन लोक माने जाते हैं। स्त्री, पुरुष और नपुंसक-ये तीन वेद माने जाते हैं। स्थिति, उत्पत्ति और विनाश-ये तीन प्रकार पदार्थ के धर्म हैं। सत्त्व, तम और रज-ये तीन गुण माने जाते हैं। जैसे आदि, अन्त और मध्य-ये तीन विभाग हैं, उसी प्रकार राशि भी तीन प्रकार की है। संसार में जो भी वस्तुएँ हैं, वे सभी तीन-तीन के भेदवाली हैं, अतः राशि भी तीन है।"
इस प्रकार उसने अद्भुत वचन-युक्तियों द्वारा उस वादी को निरुत्तर कर दिया। वह तत्काल कुछ भी जवाब नहीं दे पाया। फिर पराभव को प्राप्त उस वादी ने बिच्छु आदि अनेक विद्याओं की विकुर्वणा की। तब रोहगुप्त ने उन विद्याओं का नाश करने के लिए गुरु-प्रदत्त मयूरादि विद्याओं का प्रयोग किया और उसकी विद्याओं को पराजित कर दिया। अन्त में वादी ने एक विकराल गधी की विकर्वणा की, जिसे देखकर उससे बचने के लिए रोहगुप्त ने अपने मस्तक पर रजोहरण घुमाया, जिससे उसका पराभव करने में अशक्त हुई वह गधी क्रोधित होती हुई वादी के मस्तक पर ही मूत्र व विष्ठा करके आकाश में उड़ गयी। यह सब देखकर वह परिव्राजक मानो भूमि में गड़ गया हो, इस प्रकार शर्मिन्दगी के एहसास से आँखे व मुख नीचे झुकाकर खड़ा रह गया। स्याह मुख से युक्त उस परिव्राजक को नगरी से बाहर