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91/श्री दान-प्रदीप
उसका जन्मोत्सव किया। उसके बाद अपनी सफल वाणी के द्वारा अशोकश्री राजा ने स्नेह व उत्कण्ठावश दस दिवस के पश्चात् उस दुग्धकण्ठी बालक को अपने राज्य पर स्थापित किया। फिर अनुक्रम से वह सम्प्रति राजा शुक्लपक्ष की द्वितीया के चन्द्रमा के समान समृद्धि, बुद्धि, वय और तेज के द्वारा वृद्धि को प्राप्त हुआ। इस सम्प्रति राजा ने पूर्वभव में मात्र एक दिन अव्यक्त सामायिक (दीक्षा) की आराधना की थी। उस पुण्य के फलस्वरूप उसने अपनी अखण्ड आज्ञा तीन खण्डयुक्त अर्द्ध भरत पर प्राप्त की। फिर आचार्य सुहस्ति के योग से जातिस्मरण ज्ञान प्राप्त करके श्राद्धधर्म अंगीकार करके उत्कृष्ट आर्हत (श्रावक) बना। उसने रथयात्रा आदि पुण्यकार्य करके जैनधर्म का उद्योत किया और भरतार्ध को जिनमन्दिरों से अलंकृत किया।
हे सभ्यों! इस कथा का तात्पर्य यह है कि अशोकश्री राजा के लेख में एक बिन्दु बढ़ाने से कुणाल के अध्ययन में ही व्याघात उत्पन्न नहीं हुआ, बल्कि नेत्रनाश, राज्यरहितता आदि अन्य भी अनेक कष्ट प्राप्त हुए। अतः जिनेश्वर भगवान के कहे गये वर्णादिक में अधिक अक्षर जोड़कर पढ़ा जाय, तो कार्य की अत्यन्त असिद्धि होती है और आशातना के कारण अनेक कष्ट उत्पन्न होते हैं। अतः जिन्हें शुभ की वांछा हो, उन्हें जिनागम में वर्णादि की अधिकता कभी भी नहीं करनी चाहिए।
अब वर्णादि की न्यूनता के विषय में विद्याधर का दृष्टान्त है
एक बार श्रमण भगवान महावीर स्वामी राजगृह नगरी में पधारे। राजा श्रेणिक उन्हें वंदन करने के लिए गया और उत्कण्ठापूर्वक उनकी देशना का श्रवणकर आनन्दित हुआ। वापस लौटते समय उन्होंने एक विद्याधर को कटे हुए पंखवाले पक्षी की तरह आकाश में उड़कर वापस पृथ्वी पर गिरते देखा। यह देखकर अत्यन्त आश्चर्यान्वित होते हुए राजा ने वापस लौटकर प्रभु के पास आकर उनसे विद्याधर का वृत्तान्त पूछा, तब प्रभु ने फरमाया-"वह विद्याधर प्रमादवश आकाशगामिनी विद्या का एक अक्षर भूल गया है, अतः सम्पूर्ण विद्या का स्मरण नहीं होने से उसकी विद्या सफल नहीं हो पा रही है। वह कोशिश करता है, पर एक अक्षर की कमी होने से वह वापस नीचे गिर जाता है।"
यह सुनकर अभयकुमार ने उस विद्याधर के पास जाकर कहा-"अगर आप मुझे विद्या प्रदान करें, तो मैं आपकी विद्या को सफल बना सकता हूं।"
यह सुनकर विद्याधर ने अपनी सहमति प्रदान की और जो विद्या वह उड़ने के लिए प्रयुक्त कर रहा था, वह विद्या अभयकुमार को बता दी। पदानुसारी बुद्धियुक्त अभयकुमार ने अक्षर की कमी जान ली और उसे वह अक्षर बता दिया, जिससे विद्या सफल हो गयी। हर्षित होते हुए विद्याधर ने तुरन्त वह विद्या अभयकुमार को विधिपूर्वक सिखायी। फिर वह आकाश