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94 / श्री दान- प्रदीप
फिर उपाध्याय का चित्त पढाने के कार्य से उद्विग्नता को प्राप्त हो गया। वे विचार करने लगे–“मेरे ज्ञान को धिक्कार है! मेरी बुद्धि को धिक्कार है! मेरे उपदेश देने की चतुराई को भी धिक्कार है! अभवी को दिये गये उपदेश की तरह, बंजर जमीन में बोये गये बीज की तरह, बहरे मनुष्य के सामने गाये गये गीत की तरह और अरण्य में विलाप करने के तुल्य वसु और पर्वतक को मैंने इतने लम्बे समय तक दिन-रात पढ़ाने का जो परिश्रम किया, वह सब व्यर्थ गया। पर्वतक पुत्र मुझे अत्यन्त प्रिय है और राजकुमार वसु तो मुझे अपने पुत्र से भी ज्यादा प्रिय है। मैंने उन दोनों को जो विद्या प्रदान की, वह सर्प को दूध पिलाने के समान साबित हुई। गुरु की वाणी का परिणाम पात्र की योग्यता के अनुसार ही होता है, क्योंकि मेघ का जल स्थानभेद से मोती भी बन सकता है और नमक भी बन सकता है। अगर मेरा ज्ञानदान इन दोनों के लिए नरक - प्रदाता है, तो पाप के निवास रूप इस गृहस्थवास से अब बस!”
इस प्रकार वैराग्य प्रकट हो जाने से उपाध्याय ने तत्काल दीक्षा ग्रहण कर ली । सत्पुरुषों का उद्वेग विशेष पुण्य की प्राप्ति के लिए ही होता है ।
नारद उन गुरुदेव की विशेष कृपा से सर्व विद्याओं और कलाओं में निपुण होकर शरद् ऋतु के चन्द्र के समान निर्मल बुद्धियुक्त होकर अपने घर लौट गया। कितने ही समय बाद अभिचन्द्र राजा ने भी संयम ग्रहण किया। जो अवसर आने पर योग्य कार्य करते हैं, वे ही कुशल कहलाते हैं। उनके स्थान पर वसुराजा पृथ्वी पर शासन करने लगे। सत्यवादिता के कारण लोक में उनका यश विस्तार को प्राप्त हुआ । अपने यश के रक्षण के लिए उन्होंने कभी झूठ को आश्रय नहीं दिया। जिसकी जैसी प्रसिद्धि होती है वह प्राय: करके वैसी लेश्यावाला ही होता है ।
एक बार कोई एक शिकारी वन में शिकार करने के लिए गया । उसने किसी एक मृग पर बाण छोड़ा। वह बाण विंध्याचल पर्वत की पृथ्वी में बीच में ही स्खलित हो गया। उसका कारण जानने के लिए वह वहां गया, तो हाथ का स्पर्श करने पर यह ज्ञात हुआ कि यह तो कोई स्फटिक की शिला है। उसने विचार किया - "चारों तरफ मुखवाले दर्पण में आये हुए चित्र की तरह इस शिला में प्रतिबिम्बित हुए दूर से जाते हुए मृगों को देखकर ही मैंने बाण छोड़ा था। हाथ से स्पर्श किये बिना यह ज्ञात ही नहीं हो सकता कि यह शिला है । अतः रत्नरूप यह शिला तो वसु राजा के लायक है । "
इस प्रकार विचार करके उस शिकारी ने राजा को एकान्त में लेजाकर शिलावाली बात बतायी। यह सुनकर अत्यन्त हर्षित होकर राजा ने उसे अत्यधिक धन-सम्पत्ति देकर रवाना किया और गुप्त रूप से वह शिला अपने महलों में मँगवायी । कारीगरों के पास उस शिला