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51/श्री दान-प्रदीप
को ही प्राप्त होता है। साधुओं ने शय्यंभव नामक ब्राह्मण को मात्र आधा श्लोक ही सिखाया था, पर वही श्लोक उसके लिए द्वादशांगी के रूप में वृद्धि को प्राप्त हुआ था ऐसा आगमों में सुना जाता है। अतः जिसको ऐसा दुर्लभ सद्ज्ञान का दान दिया हो, उसे स्वर्ग और मोक्ष का सुख दिया है-ऐसा मानना चाहिए। अनेक कुकर्म-पाप को करनेवाले चिलातिपुत्र को साधु महाराज ने तीन ही पद देकर देवऋद्धि प्राप्त करवा दी थी। सम्यग्ज्ञान के द्वारा मनुष्य पुण्य व पाप को जान सकता है और उस ज्ञान के द्वारा वह पाप से निवृत्ति और पुण्य में प्रवृत्ति करके अनुक्रम से मोक्ष भी प्राप्त कर सकता है। अन्य दानों में एकमात्र दातार ही सम्पत्ति, ऋद्धि आदि प्राप्त करता है, पर ज्ञानदान करने से तो ग्रहणकर्ता व दाता-दोनों ही सम्पत्ति प्राप्त करते हैं। धनादि का दान सुपात्र को दिया जाय, तो ही वह वृद्धि को प्राप्त होता है, पर ज्ञानदान तो थोड़ा-सा भी और किसी भी पात्र को दिया जाय, वह शीघ्रता से वृद्धि को ही प्राप्त होता है, क्योंकि जिनेश्वरों ने गणधरों को त्रिपदी दी, तो वह अन्तर्मुहूर्त में ही द्वादशांगी के रूप में विस्तार को प्राप्त हुई। सूर्य से अन्धकार की तरह ज्ञान से रागादि समूह का नाश होता है। अतः ज्ञानदान के अलावा अन्य कोई उत्कृष्ट उपकार नहीं है। जो मनुष्य ज्ञान का दान देकर उसकी आराधना करता है, वह पूज्यता को प्राप्त होता है और अगर ज्ञान का दान नहीं करता, तो उसकी विराधना ही करता है व अपूज्यता को प्राप्त होता है। इस विषय में विजय राजा की कथा है, जो इस प्रकार है :
भरतक्षेत्र का आभूषण रूप और पुण्यलक्ष्मी का निवास रूप मगध नामक देश था। उसमें राजगृह नामक नगर था। उस नगर में उत्तम पुरुष अपनी लक्ष्मी को पवित्र करने के लिए सुपात्रदान किया करते थे। उसी नगर में अपने पराक्रम से शत्रु का पराभव करनेवाले जयन्त नामक राजा थे। उन्होंने नीतिसहित पृथ्वी को 'अनीति से युक्त किया था। सुदर्शन के द्वारा शोभित और पुरुषोत्तमता को धारण करनेवाले विष्णु की तरह उस राजा के लक्ष्मी के समान कमलावती नामक रानी थी। उसकी कुक्षि से उत्पन्न अन्याय-रहित और राज्य को धारण करने में धुरन्धर विजय और चन्द्रसेन नामक दो पुत्र थे। वे दोनों कुमार सदाचार-युक्त, माता-पिता की भक्ति में तत्पर, निःसीम पराक्रमवाले, महान प्रभावशाली और यशस्वी थे। पर पूर्वकर्म के दोष के कारण वे परस्पर एक-दूसरे की समृद्धि को देख नहीं सकते थे। अतः वे परस्पर ईर्ष्यालू थे। जो सहोदर होने पर भी एक-दूसरे की समृद्धि को देख नहीं सकते और जिनका मन कषाय से मलिन हो, वैसे मनुष्यों का जन्म निष्फल है।
1. ईति रूपी उपद्रव से रहित। 2. सुदर्षन चक्र। राजा के पक्ष में समकित दर्षन। 3. विश्णु का दूसरा नाम पुरुषोत्तम है व अन्य पक्ष में मनुष्यों के बीच श्रेष्ठता।