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64/श्री दान-प्रदीप
का भी तिरस्कार करते हैं अर्थात् अतुल बुद्धि-वैभव से सम्पन्न हैं। अतः अवश्य ही किसी गूढ़ अभिप्राय से से दाने हमें दिये हैं, क्योंकि बुद्धिमान की कोई भी प्रवृत्ति बिना अभिप्राय के नहीं होती।"
ऐसा विचार करके निपुण बुद्धियुक्त उस बहू ने अपने भाई को वे दाने अलग से खेत में बोने के लिए दे दिये। भाई ने भी उन दानों को प्रतिवर्ष बोते हुए अत्यन्त वृद्धि को प्राप्त करवाये।
पाँच वर्ष बाद धन श्रेष्ठी ने पहले की तरह बहुओं के बन्धुजनों को निमन्त्रित किया। उनका भोजनादि द्वारा सत्कार करके योग्य आसनों पर बिठाकर बहुओं को बुलवाया और उनको पूर्व में दिये गये ब्रीहि के दाने वापस मांगे।
__ दोनों बड़ी बहुओं के पास तो दाने नहीं थे, अतः वे खिन्न होकर मौन खड़ी रहीं। बिना विचारे कार्य करनेवाले का पराभव सुलम ही है। श्रेष्ठी ने फिर से पूछा। तब दोनों बहुओं ने हकीकत बता दी। तीसरी बहू ने थापण की तरह रखे हुए वे ही सुरक्षित कण वापस लौटा दिये। चौथी बहू ने कहा-“हे पूज्य! अगर आपको वे कण वापस चाहिए, तो उन्हें मंगाने के लिए कई गाड़े आपको मेरे पीहर भेजने होंगे।"
श्रेष्ठी ने पूछा-"इसका क्या कारण है?"
तब उसने सारी हकीकत कही। सुनकर श्रेष्ठी अत्यन्त प्रसन्न हुआ। उसने सभी बहुओं के बन्धुजनों से कहा-"इन बहुओं को अपने-2 कर्म के अनुसार ही मति उत्पन्न हुई है। अतः उसी का अनुसरण करते हुए ही मैं उन्हें अपने-2 कार्य में जोड़ रहा हूं। आपलोग किसी भी प्रकार का रोष न करें।"
ऐसा कहकर उन्होंने पहली बहू का नाम उज्झिका रखा और उसे राख, छाणे, बासी आदि निकालने का काम सौंपा। दूसरी बहू का नाम भक्षिका रखकर उसे रसोई का काम सौंपा। तीसरी बहू का नाम रक्षिका रखकर उसे भाण्डागार का काम सौंपा। चौथी बहू का नाम रोहिणी रखकर उसे सन्मानपूर्वक घर का स्वामित्व सौंपा।
हे विजय साधु! इस कथा का उपनय सुनो
श्रेष्ठी के स्थान पर श्रीगुरुदेव, बंधुजनों के स्थान पर श्रीसंघ, ब्रीहि के स्थान पर पाँच महाव्रत और बहुओं के स्थान पर भव्य प्राणियों को जानो। जैसे यथार्थ नामवाली उज्झिका को भस्मादि फेंकने में नियुक्त किया, क्योंकि वह निन्दा का पात्र बनी और दुःखी हुई। उसी प्रकार श्रीगुरुदेव द्वारा श्रीसंघ के समक्ष दिये गये पंच महाव्रतों का जो कोई मूढ़ बुद्धिवाला मदोन्मत्त साधु प्रमाद के कारण परित्याग करता है, वह इस भव में निरन्तर दुर्वार निन्दा के