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74/श्री दान-प्रदीप
भ्राता के ऊपर तुम व्यर्थ ही क्यों ईर्ष्याभाव रखते हो? ज्ञानी फरमाते हैं कि सभी पर ईर्ष्याभाव का त्याग करना चाहिए, तो फिर अधिक गुणों से युक्त अपने आप्तजनों पर तो विशेष रूप से ईर्ष्या का त्याग करना चाहिए। अतः अब तुम अपने पिताश्री की आज्ञा को शिरोधार्य करके अपने-अपने कार्य में उद्यम करो, जिससे तुम्हारा सुख, कीर्ति और प्रतिष्ठा निरन्तर वृद्धि को प्राप्त हो।"
इस प्रकार सुबुद्धि के सदुपदेश रूपी जल द्वारा शुद्ध हुई बुद्धि से उन्होंने अपने-अपने भाग में आया हुआ लक्ष द्रव्य जानकर आनन्द प्राप्त किया और कहा-"अहो! हमारे पिताश्री की उचितता अद्भुत है। वास्तव में सच्चे हितकारक की तरह उन्होंने हमारी आजीविका के लिए यथायोग्य उपाय बताया है। अहो! आपकी बुद्धि भी असीम है! ज्ञानी की तरह आपने अति गूढ़ अभिप्राय को जान लिया। अहो! आप ही हमारे पिताश्री हैं। आप ही हमारे जीवन-प्रदाता हैं। आपने ही सर्व प्रकार के दुःखों को देनेवाले इस भयंकर कलह रूपी राक्षस से हमें मुक्त किया है।"
इस प्रकार कहकर उन्होंने कुमार के वचनों को अंगीकार किया। उन्मार्ग में गिरा हुआ कौनसा मनुष्य दूसरों द्वारा बताये गये सन्मार्ग का आश्रय नहीं लेगा?
फिर कार्यकुशल सुबुद्धि उन्हें अपने साथ लेकर राजसभा में आया। राजा के सामने उसने अपनी बुद्धि के विकास को प्रकाशित किया। सारा वृत्तान्त सुनकर राजा ने विस्मित होते हुए कहा-"तुम्हारा सुबुद्धि नाम सार्थक है, क्योंकि तुमने ऐसे विवाद को खत्म किया है, जिसे कोई न कर सका । अहो! तुम्हारी अस्खलित बुद्धि सर्वत्र गतियुक्त है। बुद्धि से न जाना जाय, ऐसे भावों को भी तुम्हारी बुद्धि वज्र के समान भेद लेती है। पृथ्वी, आकाश, समुद्रादि सभी पदार्थ सीमायुक्त है, पर बुद्धिमान व्यक्ति की बुद्धि किसी भी सीमा में आबद्ध नहीं हो सकती।" ___ उसके बाद वे चारों भाई अपने-अपने कार्य में सावधान होकर कुमार की प्रशंसा करते हुए परस्पर प्रीतियुक्त बने। कुमार भी अपनी बुद्धि के द्वारा राजा व प्रजा-सभी को विस्मय प्राप्त कराते हुए अपने यश-समूह का विस्तार करने लगा।
___ मंत्री का दूसरा पुत्र दुर्बुद्धि भी यथा नाम तथा गुण था। वह मानो माता-पिता का मूर्त्तिमान उद्वेग ही हो, इस प्रकार युवावस्था को प्राप्त हुआ। वह शास्त्रों का जानकार नहीं था। इतना ही नहीं, लोक-व्यवहार को भी नहीं जानता था। अतः वह लोक में उपहास का ही पात्र बनता था। मूर्तिमान पुण्य की तरह ज्येष्ठ पुत्र को और उसके विपरीत कनिष्ठ पुत्र को देखकर मंत्री हर्ष व खेद का अनुभव करता था।