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75/श्री दान-प्रदीप
एक बार नगर के उद्यान को आकाश में चन्द्रमा की तरह विद्याओं के एकस्थान रूप किन्हीं ज्ञानी मुनि ने अलंकृत किया। उनके आगमन का श्रवण करके राजा, मंत्री व सुबुद्धि आदि ने वहां जाकर मुनि को वंदना की और समक्ष बैठ गये। मुनि ने उनको पाप नाशक देशना प्रदान की। चन्द्रिका का पान करके चकोर पक्षी की तरह देशना रूपी अमृत का पान करके वे सभी परम प्रीतियुक्त बने। उसके बाद अवसर प्राप्त करके मतिसार मंत्री ने मुनि से पूछा-"मेरे दो पुत्रों में से एक अच्छी बुद्धि से युक्त है और दूसरा बुद्धि-रहित है। इसका क्या कारण है?"
तब मुनिश्री ने फरमाया-"पूर्व समय में इसी नगर में एक वणिक के विमल व अचल नामक दो पुत्र थे। उनमें बड़ा भाई विमल प्रिय वाणी से युक्त, दातार, विनयवंत, सरल और पुण्य कमाने में निपुण था। दूसरा भाई अचल उससे विपरीत गुणावाला था। एक ही समुद्र में रहे हुए अमृत और विष के समान एक ही वंश में भिन्न-भिन्न स्वभाव से युक्त वे दोनों भाई थे। एक बार विमल साधुओं को वन्दन करने के लिए गया। उसकी योग्यता देखकर गुरुदेव ने उसे धर्मदेशना प्रदान की इस दुर्लभ मनुष्य भव को पाकर सम्यग् प्रकार से धर्म करना चाहिए, क्योंकि वह धर्म ही आगे जाकर धर्म, सुख व सम्पत्ति का कारण बनता है। वह धर्म सम्यग् ज्ञान व सम्यग् क्रिया रूप है और वही मोक्ष का भी कारण रूप है। शुद्ध कारण के बिना कार्य सिद्धि नहीं होती। यही बात ज्ञान और क्रिया के विषय में भी है। ज्ञान को भी मोक्ष का मुख्य कारण माना गया है, क्योंकि सम्यग् ज्ञान के बिना क्रिया की सफलता सिद्ध नहीं होती। अतः सुख की इच्छा रखनेवाले मनुष्यों को ज्ञान का दान करना चाहिए। पढ़ना, पढ़ाना, पढ़नेवाले को सहायता करना, ज्ञान और ज्ञानी का बहुमान करना-आदि उपायों के द्वारा ज्ञान की सम्यग् आराधना करनी चाहिए। जो पुरुष निर्मल चित्त के द्वारा अन्यों को श्रेष्ठ ज्ञान का दान करता है, वह पुरुष उसे व स्वयं को भी विघ्नरहित केवलज्ञान प्राप्त करवाता है-ऐसा मानना चाहिए। महासागर के समान विशाल व अगाध जिनागम में जो प्रवेश करता है, वह पुरुषोत्तमता को प्राप्त करके अद्भुत मोक्ष रूपी लक्ष्मी को प्राप्त करता है। जो बुद्धिमान पुरुष ज्ञानी को पुस्तक, भोजन व निवास- स्थानादि प्रदान करके उसकी सहायता करता है, वह अपनी आत्मा को सिद्धि के समीप लाता है। जो व्यक्ति ज्ञान और ज्ञानी का बहुमान करता है, अद्भुत ज्ञानलक्ष्मी उसका प्रत्येक भव में वरण करती है।
इस प्रकार धर्मगुरु की वाणी, जो कि पुण्य रूपी उद्यान में सिंचन के समान थी, उस वाणी ने विमल के हृदय में ज्ञान की भक्ति रूपी लता को नव-पल्लवित किया। फिर मुक्तिमार्ग को प्रकाशित करने के लिए दीप के समान कल्याण की वांछा से उसने पुस्तकों का निर्माण करवाया। वह ज्ञानियों को निर्दोष अन्न, औषध व उपाश्रयादि का दान करने लगा।