________________
70/ श्री दान-प्रदीप
योग्यतानुसार उन्हें व्यापार में जोड़ दिया। वे पुत्र भी विविध प्रकार के व्यापार को करने लगे।
एक बार धनश्रेष्ठी वृद्धावस्था के कारण व्याधियों से अत्यन्त पीड़ित हुआ। वृद्धावस्था ज्वरादि रोगों की संकेतिक दूतिका है। अतः उस चतुर श्रेष्ठी ने अपने चारों पुत्रों को बुलवाया
और द्राक्षा के समान मिष्ट वचनों के द्वारा उन्हें शिक्षा प्रदान की-“हे निर्मल अंतःकरणयुक्त पुत्रों! वैसे तो तुम स्वयं ही विवेकी हो, फिर भी कुछ शिक्षाएँ मैं तुम्हें दे रहा हूं, जिन्हें तुम ध्यानपूर्वक सुनना। तीन लोक के विशाल साम्राज्य को भोगनेवाले धर्म रूपी राजा के पास ये सभी लक्ष्मियाँ दासी के रूप में रही हुई हैं। धर्म समग्र दुष्कर्म रूपी वृक्षों का उन्मूलन करने में मदोन्मत्त हाथी के समान है। अतुल कल्याण रूपी वल्ली को पवित्र करने में मेघ के समान है। जब जीव परलोक की ओर प्रस्थान करता है, उस समय धन, मित्र, बंधु आदि सब कुछ यहीं पर रह जाता है। मात्र धर्म ही उसके साथ जाता है। जिस प्रकार शरीर में जीवन की प्रधानता है, गृहस्थाश्रम में धन की प्रधानता है, उसी प्रकार पुण्य के सर्व कार्यों के मध्य एकमात्र दया की ही प्रधानता है। वास्तव में सत्यवचन ही पुरुष के लिए कामधेनु के समान है। उसी से धर्म रूपी दूध झरता है और अभीष्ट फल की प्राप्ति करवाता है।
सदा व्यापार की शुद्धि के लिए ही प्रयत्न करना, क्योंकि शुद्ध व्यापार के बिना धन, आहार, शरीर और धर्म-ये सभी मलीन होते हैं।
स्वदारा-सन्तोष नामक विद्या तीनों लोक में अद्भुत है, क्योंकि उसी विद्या के द्वारा श्रेष्ठ भाग्य और श्रेष्ठ भावना से युक्त हुआ पुरुष ही सभी सिद्धियों को वरता है। संतोष अमृत-रस से भी अधिक उत्तम रस है, जिसका पान करने पर अजर-अमर रूपी पद से युक्त मोक्ष को वरा जा सकता है।
___ सहसाकार से किसी भी कार्य को नहीं करना चाहिए, क्योंकि विचारपूर्वक कार्य करनेवाले को समुद्र की तरह सम्पत्तियाँ रूपी सभी नदियाँ आकर वर लेती हैं। धन का नाश हो जाता है, शरीर क्लेशित हो जाता है, अन्त में जीवन का भी नाश हो जाता है, पर यश रूपी धनयुक्त सत्पुरुष अंगीकार किये हुए को कतई नहीं छोड़ते।
भयंकर नाग के समान दुर्जनों का दूर से ही त्याग करना चाहिए, क्योंकि वे अपनी संगति से दूसरों के गुण रूपी जीवन का हरण करते हैं। बुद्धिमान पुरुषों को सदा सत्पुरुषों की संगति करनी चाहिए, क्योंकि शरद् ऋतु के योग में जैसे जल निर्मल बनता है, वैसे ही सत्संगति के योग से जीव निर्मल बनता है। विवेक, स्वजनों पर प्रीति, यथाशक्ति दान, व्यसनों का त्याग और व्यवहार की शुद्धि-ये पाँच बातें लक्ष्मी की प्राप्ति में साक्षी रूप हैं। पुरुष गाम्भीर्य और विनयादि गुणों के द्वारा जिस प्रकार की शोभा को धारण करता