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68/श्री दान-प्रदीप
बार
होने के कारण इस पुत्र की प्राप्ति से वह दम्पति अत्यन्त हर्षित हुआ। चिरकाल के बाद इष्ट वस्तु की प्राप्ति होने से कौन प्रसन्न नहीं होगा?
जब वह आठ वर्ष का हुआ, तो पिता ने हर्षपूर्वक शुभ मुहूर्त में महोत्सव के साथ उसे पढ़ने के लिए लेखशाला में भेजा। उपाध्याय ने भी प्रयत्नपूर्वक उसे पढ़ाने का प्रयास किया। पर उस समय ज्ञान की अवज्ञा से बांधा हुआ पूर्वजन्म का कर्म उदय में आया। अतः उपाध्याय उसे कुछ भी नहीं पढ़ा सके। गाँठवाली लकड़ी को क्या कोई तोड़ सकता है?
। को सीखना भी उसके लिए महाभाष्य की तरह विषम हो गया। अपंग मनुष्य के लिए घर की देहरी भी ऊँचे गढ़ के समान प्रतीत होती है। फिर उद्विग्न होकर उपाध्याय ने उसका त्याग कर दिया। कौनसा बुद्धिमान पुरुष अयोग्य स्थान पर अपना पुरुषार्थ व्यय करेगा? एक-एक करके उसे पाँचसौ उपाध्यायों के पास उसे भेजा गया, पर सभी ने उसका परीक्षण करके जौहरी जैसे खोटे मणि को छोड़ देता है, उसी तरह उसका त्याग कर दिया। जड़बुद्धि युक्त उसके वज्रहृदय में एक अक्षर का भी प्रवेश न हो सका। तब उसके पिता अत्यन्त खिन्न होकर विचार करने लगे-"अहो! यह पुत्र तो पत्थर निकला। अब मैं क्या करूं? इस पुत्र को पढ़ाने पर भी यह किसी भी कुशलता को प्राप्त नहीं होता है। ऐसा पुत्र जन्मता ही नहीं, तो अच्छा होता। अगर जन्मता भी, तो उसका जीवन न होता, तो अच्छा होता। कहा भी है कि :
अजातमृतमूर्खेभ्यो मृताजातौ सुतौ वरम्। यतस्तौ स्वल्पदुःखाय यावज्जीवं जड: पुनः ।।
भावार्थ :-नहीं उत्पन्न हुआ, मरा हुआ और मूर्ख- इन तीन प्रकार के पुत्रों में से नहीं उत्पन्न हुआ व मृत पुत्र-ये दोनों ही श्रेष्ठ है, क्योंकि ये अल्प दुःखदायक होते हैं। पर मूर्ख पुत्र तो जिन्दगी भर ही दुःख के लिए होता है। अतः मूर्ख पुत्र का होना श्रेष्ठ नहीं है।।"
इन विचारों से पीड़ित धन श्रेष्ठी अनेक देवों की पूजा-मन्नतें आदि करने लगा। विविध प्रकार की औषध, मंत्र-तंत्रादि करवाने लगा। पर किसी भी उपाय के द्वारा पुत्र को कोई भी लाभ नहीं हुआ। रोग का कारण जाने बिना किसी भी रोग की कोई चिकित्सा नहीं हो सकती।
एक बार उस नगर के उद्यान में कोई ज्ञानी मुनि पधारे। उन्हें वंदन करने के लिए बुद्धि रूपी धन से युक्त धन श्रेष्ठी अपने पुत्र को साथ में लेकर गया। अन्य पुरजन भी मुनि को भक्तियुक्त वंदन करने के लिए आये। सभी वंदन करके मुनि के समीप बैठ गये। सभी को धर्मलाभ रूपी आशीष से संतुष्ट करके मुनि ने ज्यों ही पाप का शमन करनेवाली धर्म