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63 / श्री दान- प्रदीप
कड़वा लगता है, पर बाद में इसका परिणाम अनंत सुख का साधन बनता है ।"
इस प्रकार गुरुमुख से निःसृत वचनामृत के द्वारा उसके मोह रूपी महाविष का नाश हुआ और शुद्ध वैराग्य प्रकट हुआ । अतः विजय ने तत्काल दीक्षा ग्रहण कर ली । गुरुदेव ने उसे दीक्षा प्रदान करके उत्तम शिक्षाओं से उसे अलंकृत किया - "हे महानुभाव! मैंने तुझे ये पंच महाव्रत दिये हैं। इसका पालन करने में तुम निरन्तर सावधान रहना, जिससे अतिचार रूपी तस्कर कभी उपद्रव पैदा न करे। शिष्य - प्रशिष्यादि उत्तम क्षेत्र में इन महाव्रतों का रोपण करने से रोहिणी के पाँच शालिकणों की तरह विशाल वृद्धि प्राप्त होगी । "
यह सुनकर विजय साधु ने पूछा - "हे पूज्य ! रोहिणी कौन थी ?"
तब गुरुदेव ने इस प्रकार उसकी कथा सुनायी :
राजगृह नगर में धन नामक श्रेष्ठी रहता था । उसके भद्रा नामक भार्या थी । उसके चार पुत्र थे । उन पुत्रों के सुकुलोत्पन्न चार बहुएँ थीं । बहुओं को योग्य कार्य में जोड़ने के लिए बुद्धिमान धन श्रेष्ठी ने परीक्षा लेने की सोची, क्योंकि बुद्धि द्वारा किया गया कार्य कीर्ति के लिए होता है । उसके बाद उस श्रेष्ठी ने चारों बहुओं के बन्धुजनों को अपने घर आमन्त्रित करवाकर उनका भोजनादि के द्वारा श्रेष्ठ सत्कार करके सभी को यथायोग्य आसन पर बिठाया। उन सबके सामने चारों बहुओं को बुलवाकर पाँच -2 ब्रीहि के दाने देकर उनसे कहा—“हे पुत्रियों! इन कणों को सम्भालकर रखना । जब मैं मांगूं, तब तुम इन्हें मुझे वापस लौटा देना ।"
इस प्रकार श्रेष्ठी ने सभी को विदा कर दिया। वे सभी अपने मन में तर्क-वितर्क करते हुए अपने-2 स्थानों पर लौट गये ।
इधर उन कणों को लेकर सबसे बड़ी बहू अपनी स्थूल बुद्धि से विचार करने लगी - "मेरे वृद्ध ससुर सठिया गये जान पड़ते हैं, क्योंकि उसने इस प्रकार सबको बुलाकर धन का निरर्थक व्यय किया है । हमें मात्र ब्रीहि के पाँच दाने देकर हमारा अपमान किया है।"
इस प्रकार विचार करके क्रोधित होकर उसने उन कणों को फेंक दिया।
दूसरी बहू ने विचार किया - "ये कण पूज्य ससुरजी ने दिये हैं, अतः ये फेंकने योग्य तो नहीं हो सकते। पर चिरकाल तक इनका रक्षण भी नहीं किया जा सकता ।"
अतः वह उन दानों को खा गयी। मनुष्यों को कर्मानुसारिणी बुद्धि होती है ।
तीसरी बहू ने शुद्ध बुद्धि से "पूज्य का आदेश शुभ के लिए ही होता है" - ऐसा विचार करके उन दानों को एक वस्त्र के छोर में बांधकर उन्हें निधान की भांति सुरक्षित रख दिया । चौथी बहू ने चतुराईपूर्वक मन में विचार किया - "मेरे ससुर उचित व्यवहार में बृहस्पति