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46/ श्री दान-प्रदीप
भविष्य उज्ज्वल व शुभ बननेवाला हो, वही दूसरों की कही हुई हितशिक्षा को मानता है।
"आज से तेरे पाप रूपी यामिक दूर हुए" यह कहकर देव अदृश्य हो गया। उसके बाद वह अपने घर आया। तुरन्त ही अन्न की अशुचि से युक्त हाथ को देखकर विवेक जागृत हो जाने के कारण मन ही मन उस गन्दगी की निन्दा करते हुए वह अपनी पत्नी से कहने लगा-"गर्म पानी लेकर आ, ताकि मैं अपने हाथ को धो सकू। ऐसे हाथ को देखकर मेरे मन में दुगुंछा उत्पन्न होती है।"
यह सुनकर पत्नी ने विचार किया-"अब इनके विवेक रूपी सूर्य का उदय होनेवाला ही है, क्योंकि इनके प्रकाश का अरुणोदय हो चुका है। आज इन्हें हाथ धोना उचित लग रहा है, जो पूर्व में कभी भी इन्हें उचित नहीं लगा। निश्चित ही इनके पाप रूपी यामिकों का जल्दी ही नाश हो रहा है, क्योंकि अगर वे हाजिर होते, तो कभी भी ऐसी बुद्धि इनमें प्रकट नहीं हो सकती थी।"
इस प्रकार सोचकर उल्लसित होते हुए उसने अपने पति को हाथ धोने के लिए गरम पानी दिया। हाथ धोकर धर्मबुद्धि को प्राप्त वह धनराज भोजन करने के लिए बैठा। केवल भोजन करके ही वह तृप्त नहीं हुआ, बल्कि धन की तृष्णा शान्त हो जाने से सन्तोष रूपी अमृत के द्वारा भी वह तृप्त हुआ। फिर उसने विचार किया-"अहो! दान और भोग के बिना मेरा धन इतने दिनों तक वनमालती के पुष्पों की तरह निष्फल ही हुआ।"
ऐसा विचार करते हुए रात्रि हो जाने से वह सो गया। प्रातःकाल द्रव्य और भाव से जागृत उस धनराज ने अरिहन्त व गुरुदेवादि को प्रणामादि करने का प्रभात-कृत्य किया। मध्याह्न होने पर उसने गर्म सुगन्धित जल के द्वारा मानो कृपणता से प्राप्त अपयश को दूर करने के लिए स्नान किया। फिर पुण्य की वासना से युक्त अन्तःकरण में उदय को प्राप्त सद्बोध रूपी चन्द्र से प्रसृत किरणें हों, इस प्रकार से धोये हुए उज्ज्वल वस्त्र धारण किये। मोक्षपुरी में जाने के लिए मानो प्रस्थान साधता हो, उस प्रकार से हाथ में पूजा की सामग्री लेकर जिनचैत्य में गया। उदार बुद्धि व अत्यन्त हर्ष से युक्त उत्तम सुगन्धित कपूर व चन्दन को घिसने लगा। मानो अपने पाप को ही घिस रहा हो, इस प्रकार शोभित होने लगा। स्नात्र करने की इच्छा से उसने जिनेश्वर के अंग पर रहे हुए निर्माल्य को दूर किया और साथ ही अपने शरीर में रहे हुए दुर्भाग्य को भी दूर किया । शुद्ध जल के द्वारा केवल जिनेश्वर भगवन्त को ही स्नान नहीं करवाया, बल्कि पाप रूपी पंक को दूर करने के लिए अपनी आत्मा को भी स्नान करवाया। फिर जिनेश्वर के शरीर को सूक्ष्म वस्त्र के द्वारा कोरा किया और अपने चित्त को प्रकट भक्तिरस के द्वारा आर्द्र किया। भक्तिपूर्वक सुगन्धित चन्दन के द्वारा केवल